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बराङ्ग चरितम्
मन्त्रिप्रधानाः पृथुधीविशेषा' विद्यासमृद्धाः प्रथिताः सदस्याः २ । हयद्विपैश्चापि पदातिभिश्च महाविभूत्या तमनुप्रजग्मुः ॥ ५ ॥ नृदेवप्रियकारिणोभिर्यथोपचारैरनुवर्तनीभिः ।
देवी
जिनेन्द्र पूजाभिदिदृक्षया सा नरेन्द्रपत्नीभिरमा जगाम ॥ ६ ॥ अनेकयुद्धप्रतिलब्धकीर्तिः सर्वज्ञवक्रोद्गतपुण्यमूर्तिः । जगत्प्रजानन्दकरः प्रदोषे नान्दीमुखं दीपावलीभिर्ज्वलितप्रभाभिर पूर्ववर्गेश्च गन्धैश्च पुष्पैर्बलिभिः सुधूपैनिवेदयां रात्रिबल
प्रतिमुखश्चकारः ॥ ७ ॥ चरुप्रकारैः ।
बभूव ॥ ८ ॥
सम्राटसे माँग लेवें, इस क्रमसे 'किमिच्छक' दान देनेके पश्चात् श्रीवरांगराज नतन जिनालय में पहुंचे थे। उस समय उनकी मति पूर्णरूपसे धर्माचरण में लगी हुई थी ॥ ४ ॥
आ - विबुध आदि प्रखर प्रतिभाशाली सब ही प्रधानमंत्री, अपनी सुमति, सेवा तथा उत्साहके लिए विख्यात राजसभाके सदस्य, भी सम्राटके पीछे-पीछे असीम विभवयुक्त घोड़ा, हाथी, पदाति आदि सैनिकों के साथ राजाके पोछे चल दिये थे ||५|| साम्राज्ञी अनुपमा देवी भी श्री एक हजार आठ जिनेन्द्रदेवकी पुण्यमय पूजा देखनेकी अभिलाषासे अन्य समस्त रानियोंके साथ जिनालयको चल दी थीं। क्योंकि उनके साथ जानेवाली सबही रानियाँ सदैव सम्राटको प्रिय काम करनेमें आनन्दका अनुभव करती थीं, यथायोग्य विनय तथा व्यवहार करके वे सदा ही पति तथा सम्राज्ञीके अनुकूल आचरण करती थीं ॥ ६ ॥ प्रतिष्ठा संरम्भ
सम्राट वरांगने एक, दो नहीं अनेक दारुण युद्धों में विजय प्राप्त करके विमल यश कमाया था, सर्वज्ञ प्रभुके द्वारा उपदिष्ट धर्मका पालन करके उनका अभ्यन्तर तथा बाह्य दोनों ही परम परित्र हो गये थे तथा अपनी प्रजाको तो सब दृष्टियोंसे वह सुख देते ही थे, तो भी उन्होंने प्रगाढ़ भक्ति और प्रीतिपूर्वक रात्रि के अन्तिम प्रहरमें उठकर कर्मजेता प्रभुकी आराधना करने के लिए नन्दीमुख ( प्रतिष्ठा की मंगलाचरण विधि ) को विधिपूर्वक किया था ॥ ७ ॥
भाँति-भाँति स्वादु तथा सुन्दर नैवेद्य बनाये जा रहे थे। उनमें कितने ही ऐसे थे जो उसके पहिले कभी बने ही न थे । दीपों की पंक्तियाँ प्रज्वलित की गयीं थीं जिनके प्रकाशसे सारा वातावरण ही आलोकित हो उठा था, मधुर तथा प्रखर सुगन्धयुक्त पुष्प संचित किये गये उत्तम धूप तथा अन्य अर्घ्य सामग्री भी प्रस्तुत थी । इन दीपकादिको लेकर सम्राटने जिन चरण में रात्रिकी बलि (पूजा) समर्पित की थी ॥ ८ ॥
१. म पृधुवी । २. क समस्याः ।
३. [ प्रतिमुखः ] ।
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त्रयोविंशः
सर्ग:
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