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बराङ्ग
एकविंश:
सर्ग
चरितम्
सुखं हि साम्नैव तु कार्यसाधनं ह्या पप्रदानेन च मध्यमं भवेत् । प्रभेददण्डौ खलु मृत्युनाशगौ' चतुष्टयी वृत्तिरिहा वतां महीम् ॥ ६६ ।। अतो वरिष्ठा तनया मनोहरां प्रदाय सम्यग्विधिना महीपतेः। कृतककार्याः सुखमास्महे वयं न चान्यथास्तीश्वर सन्धिकारणम् ॥ ६७ ॥ स्वमन्त्रिसंदर्शितनीतिचक्षुषा विचिन्त्य दीर्घ प्रविचार्य चात्मनि । प्रदातुकामो वरविग्रहाय तां निनाय पुत्रीमनवद्यरूपिणीम् ॥ ६८ ॥ निवेद्य चात्मागमनं महीपतेरनुज्ञया तस्य विवेश मन्दिरम् । विलोक्य सिंहासनमध्यधिष्ठितं ननाम मूर्ना नमितात्मशत्रवे ॥ ६९ ॥
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साम हो नोति है 'सामनीतिका अनुसरण करके कार्यको सिद्ध कर लेना सब दृष्टियोंसे सुखकर होता है। यदि शम संभव न हो तो 'दान' उपायका आश्रय लेना चाहिये, यद्यपि इसके द्वारा प्राप्त की गयो सफलता मध्यम ही होती है। भेद तथा दण्ड ये दोनों उपाय अभीष्ट नहीं हैं। कारण, इनका अवश्यंभावी परिणाम मृत्यु और नाश होता है। यही चार अंग हैं जो कि इस संसारमें पृथ्वीकी रक्षा कर सकते हैं ।।६६ ॥
अतएव हे महाराज ! हमारी यही सम्मति है कि श्रेष्ठ गुणोंसे अलंकृत राजपुत्री मनोहराको शास्त्रानुकूल विधिसे आनर्तपुरेश्वर वरांगको व्याह देना चाहिये । इस उपायकी सहायतासे हमारा कार्य सिद्ध हो सकेगा और हम शान्तिसे जी सकेगे। इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है जो सन्धिका आधार हो सकता हो ।। ६७ ॥
वकुलेश्वरके मंत्रियोंने समयोपयोगी सम्मति देकर उसकी नोतिरूपी आँखें खोल दी थी जिसके प्रकाशमें उन्होंने काफी लम्बे समय तक ऊहापोह करके मनमें वही निश्चय किया था। और वरांगराजके साथ धार्मिक विधिसे व्याह देनेके अभिप्रायसे ही वह अपनी सर्वांग सुन्दरी राजदुलारीको आनर्तपुर ले गये थे ।। ६८ ॥
वहाँ पहुँच जानेपर उन्होंने वरांगराजको अपने आनेका समाचार यथाविधि भेजा था। जब राजसभामें उपस्थित होने के लिए वरांगराजको स्वीकृति मिल गयी तब ही उसने राजमहल में प्रवेश किया था। तथा वहाँपर अपने शत्रुओंके मानमर्दक वरांगराजको विशाल सिंहासनपर विराजा देखते ही भमिपर मस्तक झुकाकर उसको प्रणाम किया था ॥ ६९ ।। १. क नाशनौ। २. क वृत्तिहिवाहतां ।
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