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द्वाविंशः
सर्गः
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खरो मदूनां क्रमनायिनां च स्वकालनिर्वतितसद्गुणानाम् । श्रियं नरेन्द्रोऽनुभवनराज शरद्विनिर्धात इवेन्दुराजः॥८॥ शरद्यथाकांशविजम्भितायां प्रसन्नदिक्तोयनभस्तलायाम् । विपक्वशालीनवलोकमानो महीपति मितलेऽतिरेमे ॥९॥ हेमन्तकाले रतिकर्कशाभिः क्रीडानषङ्गक्रमकोविदाभिः । प्रियाभिरापीनपयोधराभिश्चिक्रोड रम्येषु निशामुखेषु ॥१०॥ शीतादितासेवितबालभानौ तुषारसंसर्गविशीर्णपद्म।
करीन्द्रवृन्दैः शिशिरे नरेन्द्रो बभ्राम देशान्स विहारयोग्यान् ॥ ११ ॥ जो अधिकारी अथवा प्रजाजन स्वभावसे ही कोमल थे, कुल, देश तथा धर्म, आदिके नियमोंका पालन करते हुए जीवन व्यतीत करते थे, अपने कर्तव्यों, शिक्षाओं, आदिको दिये गये उपयुक्त समयके भीतर ही भलीभाँति कर देते थे। उन लोगोंकी योग्यताओंको समझने तथा उन्हें पुरस्कार देनेमें वह अत्यन्त तोव था। उक्त विधिसे अपनी राज्यलक्ष्मीका भोग करते ॥ हुए श्री वरांगराजकी उस समय वैसी हो कान्ति हो रही थी जैसी कि शरद् ऋतुमें तारोंके राजा चन्द्रमाकी मेघमाला हट जानेपर होती है ।। ८॥
शरद-ऋतु विहार शरद् ऋतुके आते ही मेघमाला अदृश्य हो जानेपर सूर्यको किरणोंका आतप और उद्योत बढ़ जाते हैं, सब दिशाएं स्वच्छ हो जाती हैं आकाशका निर्मल नीलवर्ण निखर उठता है तथा वर्षाके कारण घुलो हुई मिट्टीके बैठ जानेसे जल भी स्वच्छ और सुन्दर हो जाता है, ऐसे शरद् ऋतुमें पके हुए धानके खेतोंकी छटाका निरीक्षण करते हुए श्री वरांगराज हरी-भरी भूमिपर घूमते-फिरते थे ॥९॥
हेमन्त हेमन्त ऋतुके आ जानेपर वह रात्रिके समय अपनी पत्नियोंके साथ भाँति-भाँतिकी रतिकेलि करता था। उसकी प्राणप्रियाएँ कुछ-कुछ शीत बढ़ते रहनेके कारण रतिकेलि करते-करते थकती न थों, वे इतनी कुशल थीं कि अपनी ललित चेष्टाओं तथा हावभावके द्वारा रतिके क्रमको ट्टने न देती थीं। रतिमें साधक उनके स्तन, आदि अंग ही पूर्ण विकसित तथा पुष्ट न थे अपितु उनके हृदय भो प्रेमसे ओतप्रोत थे॥१०॥
शिशिर जिस समय शीत अपने यौवनको प्राप्त करके लोगोंको इतना विकल कर देता है कि उससे छुटकारा पानेके लिए उदित होते हए बालसूर्यको धूपमें ही जा बैठते हैं, हिम और पालेके पड़नेके कारण जलाशयोंके कमल तितर-बितर हो जाते हैं, ऐसे में शशिर ऋतुमें ही श्री वरांगराज उत्तम हाथियोंको सुसज्जित कराके उनपर आरूढ़ होते थे और उन रम्य स्थलोंमें विहार करते
जो कि अपने कृत्रिम तथा अकृत्रिम दृश्योंके कारण विहारक्षेत्र बन गये थे ।। ११ ।। " १.म खलो। २. म बालभागौ।
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