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वराङ चरितम्
नरेन्द्रगेहोत्तरदिक्प्रतिष्ठितो जिनेन्द्रगेहो मणिरत्नभासुरः। चलल्पताको ध्वजवृन्दसंकुलः सहस्रकूटोत्कटसंकटोऽप्यभूत् ॥ ३८॥ नपस्य पुण्योदयतो महाजनः समन्ततः प्रश्रुतवान्समागमत् । महाटवीग्रामसहस्रसंकटो वनं स्वभद्गोवजसंनिवेशितम्॥३९॥ तपोधनानां निलया वनान्तरे शिलालयाः कृत्रिमरम्यभूतलाः । महापथोपान्तविरूढपादपाः क्वचिज्जलोपाधितफल्लवल्लिकाः ॥ ४०॥ क्वचित्सगोधूमयवातसीतिलाः क्वचिच्च केदारविपक्वशालयः । क्वचित्पुनाहिसमाकुला मही क्वचिच्च मद्वीभुवनं व्यराजत ॥४१॥
एकविंश सर्गः
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राजमहलकी उत्तर दिशामें एक विशाल जिनालयकी रचना, मणियों और रत्नोंसे की गयी थी। इस जिनालयकी छटा बड़ी ही आकर्षक थी। उसके ऊपर विशाल पताका लहरा रही थी। चारों ओर लगी हुई छोटी-छोटी ध्वजाओंका दृश्य भी अदभूत तथा उसके ऊपर बने हुए हजारों शिखरोंने तो पूरेके आकाशको घेर लिया था । ३८ ॥
श्रीदेवालय राजा वरांगके पूर्व पूण्यके उदयके प्रतापसे जब आनर्तपुरके बसनेका समाचार चारों ओर फैला तो उसे सुनते ही सब दिशाओंसे महासम्पत्तिशाली सज्जन लोग उस नगरको चले आये थे। कुछ समय पहिले सघन हजारों जंगलोंके कारण जिस प्रदेश मेंसे निकलना भी कठिन था, थोड़े समय बाद उसी स्थलको शोभाको ग्राम, नगर तथा ग्वालोंकी अनेक बस्तियाँ बढा रही थी।। ३९ ॥
पुण्य-प्रताप गहन बनोंके मध्यमें कहीं-कहीं पर तपस्वियोंके आश्रम बने थे । इन आश्रमोंकी कुटियाँ शिलाओंसे बनी थीं तथा उनके धरातल बढ़िया और सुन्दर फर्श करके बनाये गये थे। पर्वतोंके ऊपर राजाकी आज्ञासे हरी भरो समतल भूमिका बनायी गयी थी जिनकी रमणीयता अलौकिक ही थी। जंगलोंको काटकर विशाल राजमार्ग बनाये गये थे जिनके दोनों ओर वृक्ष खड़े थे। अन्य स्थलों पर सुन्दर जलाशयोंके चारों ओर मनोहर लताएँ फूल रही थीं ॥ ४०॥
कहीं पर गोधूम ( गेहूँ ) अतसी, तिल तथा जौके खेत खड़े थे, इनके आस-पास ही खलिहान ( केदार ) थे जिनमें पक जाने पर कटा हुआ धान इकट्ठा किया गया था, दूसरी ओर धानके खेतोंको पंक्तियाँ लहलहा रहो थों तथा अन्य ओर मधुर इक्षके बनसम घने खेत खड़े हुए थे ।। ४१ ॥ १.क संनिवेशितुम् । .
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