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वराङ्ग चरितम्
परस्परोद्वञ्चनकुञ्चिताक्षौ
परस्परच्छिद्रपरायणौ तौ ।
परस्पराघातविवृद्धरागौ परस्परं जनतुरुग्रकोप ॥ ३८ ॥ प्रपञ्चयत्यात्मकलाबलेन ।
पुलिन्द 'नाथस्य तु शस्त्रपातं
नरेन्द्रपुत्रस्य
दृढप्रहारस्तस्याङ्गभङ्ग बहुशश्चकार ॥ ३९ ॥ ऊर्ध्वप्रहारे प्रपेदे अधःप्रहारे पुनरुत्पपात । सम्प्रहारे विययौ च पाश्वं ररक्ष शिक्षागुणतः स्वगात्रम् ॥ ४० ॥ उत्कृष्य खड्गं विधिनोपसृत्यास्थानं समास्थाय रुषा परीतः । वामांसमाक्रम्य जघान तस्य मत्तद्विपं सिंहशिशुर्यथैव ॥ ४१ ॥ लब्धप्रहारः क्षितिपात्मजेन विभ्रान्तदृष्टिः स पुलिन्दनाथः । स्फुरत्तनुर्भूमितले पपात दवाग्निनात्युच्छ्रितशालकल्पः ।। ४२ ।।
भागो मत' इतना कहकर लड़नेकी इच्छासे ही युवराज सन्नद्ध होकर खड़े हो गये थे। पुलिन्दपति महाकालको भी पुत्र घातक होनेके कारण युवराजसे दृढ़ तथा प्रबल वैर था अतएव वह भी इनके सामने जम गया था ।। ३७ ।।
द्वन्द्व प्रारम्भ होते ही वे एक दूसरे को धोखा देनेके लिए विचित्र प्रकारसे आँखें मींचते थे, परम्पर में दुर्बल स्थान तथा क्षणकी खोज में लगे थे, आपसी प्रहारोंसे उन दोनोंका ही क्रोध तीव्रतासे बढ़ रहा था फलतः कुपित होकर किये गये प्रहार अधिक उग्र होते जाते थे ॥ ३८ ॥
युद्धकला नैपुण्य
पुलिन्दनाथ के अत्यन्त दृढ़ प्रहारको भी उसका शत्रु ( वरांग ) अपनी युद्ध कलाकी निपुणता द्वारा निरर्थक कर देता था, किन्तु राजपुत्रका सटीक शस्त्रपात उसके शत्रु महाकालके अंग-भंगको बार बार करता जा रहा था ।। ३९ ।।
महाकाल जब राजपुत्र वरांग के ऊपरी भाग पर शस्त्र मारता था तो वे झुककर बच जाते थे' पैरों आदि अधोभाग में प्रहार होने पर उचक जाते थे, मध्य अंगपर प्रहार होते ही किसी बगल में घूम जाते थे । इस प्रकार शस्त्र शिक्षाके सांगोपांग अभ्यासके बलपर अपनी रक्षा कर रहे थे ॥ ४० ॥
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इस समय तक राजपुत्र भी क्रोधके नशेमें चूर चूर हो गया था अतएव विधिपूर्वक तलवार को महाकालके सामने फैलाकर यद्यपि वह उसके निकट ही किसी भयानक स्थान पर जा पहुँचा था, किन्तु इसी समय उसने पुलिन्दनाथ के बांयें कंधे पर आक्रमण करके, वैसा ही प्रहार किया जैसा कि सिंह शावक मदोन्मत्त हाथी पर करता है ॥ ४१ ॥
राजपुत्र वरांग का क्रूर प्रहार पड़ते ही उसके झटकेसे पुलिन्दनाथ महाकाल की आँखें घूमने लगी थीं, पूरा शरीर १. [ इत्यास्थितो ] २. म पुलीद्र । ४. म 'शालि ।
२. [ प्रवञ्चयत्यात्म° ] ।
३. म उत्क्र. प्य ।
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चतुर्दशः सर्गः
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