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वरांग चरितम्
चतुर्दशः
सर्यः
एवं विनिश्चित्य पुलिन्दमेकं पादप्रहारेण निपात्य भूमौ । सखेटकं खड्गमवार्यवीर्यः प्रसह्य जग्राह मृगेन्द्रसत्त्वः ॥ २८॥ उद्भ्राम्य खड्गं विधिवस्क्रियावान् प्रविश्य मध्ये शरसंकटस्य । शरप्रपातान्यपि वञ्चयित्वा पुलिन्दनाथात्मजमाप तूर्णम् ॥ २९॥ पूर्व त्वमेव प्रहरस्व तावत्पश्यामि पश्चादलमावयोस्तु । इत्येवमुक्तो धृतशस्त्रपाणिस्तस्थौ पुरस्ताद्तमुग्रवीर्यः ॥ ३०॥ निरुध्यमानः क्षितिपात्मजेन पुलिन्दनाथस्य सुतोऽतिमुग्धः । नरेश्वरं तं प्रजहार रोषादशिक्षितो वन्य इव द्विपेन्द्रः ॥३१॥ नैष प्रहारोऽसुनिपातदक्षः क्षमस्व में सांप्रतमेकघातम् । इति ब्रुवन्खेटकखड्गहस्तः क्रोधोद्धतो बल्गनमाचकार ॥ ३२ ॥
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PARADARमरम्मामलान्यास
वराङ्ग का पराक्रम राजपुत्र यह निर्णय कर पाये थे कि एक पुलिन्द उनके सामने से निकला, उन्होंने उसे जोरसे लातमार कर पृथ्वीपर गिरा दिया था क्योंकि उनके पराक्रम का न तो कोई प्रतिरोध हो कर सकता था। इसके उपरान्त शीघ्रही सिंहके समान शक्तिशाली 'युवराजने उस गिरे हुए भोलके हाथसे ढाल सहित तलवार को छीन लिया था । २८ ।।
फिर क्या था? शस्त्रचालनमें कुशल राजकुमार ढंगसे उस तलवारको चलाते हुए वाणोंकी बौछारमें घुस गये थे, किन्तु अपने रण कौशलके कारण वाणोंको मारको व्यर्थ करते जाते थे और थोड़ी ही देरमें वे पुलिन्दपतिके पुत्रके सामने जा पहुंचे थे ॥ २९ ॥
पुलिन्दनाथके पुत्रको सम्बोधन करके उन्होंने कहा था-'पहिले तुम ही मुझ पर प्रहार करो इसके बाद दोनों का बल देखा जायेगा।' यह सुनते ही दारुण पराक्रमी पुलिन्दोंका युवराज भो हाथमें शस्त्रोंको लिये हुए बड़ी तेजीसे बढ़कर राजपुत्रके सामने आ पहुंचा था ।। ३० ।।
पुलिन्दपुत्र और वराङ्ग विचारे पुलिन्दोंका युवराज रणकलामें मूर्ख था, व्यवस्थित युद्ध करनेकी शिक्षासे अछूता था अतएव युवराजने ज्योंही उसे आगे बढ़नेसे रोका त्यों ही उसने कुपित होकर अशिक्षित जंगली मस्त हाथीके समान युवराज वरांगपर आक्रमण कर दिया था। ३१ ॥
प्रवीर युवराजने पुलिन्द पुत्र के इस बारको अपनी शस्त्र-शिक्षा तथा शरीर पराक्रमके द्वारा बचाकर 'तुम्हारा यह । प्रहार वेध्यपर चुमाचुम (पूरा ) पड़कर उसे नष्ट करनेमें समर्थ नहीं है, लो, तैयार हो जाओ, अब मेरे एक प्रहारको तो सम्हालो ।
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