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वराङ्ग चरितम्
तमवगम्य
'चरैर्बकुलेश्वरो वरतनोर्भटतां
बलसंपदम् । अपजगाम मनाग्भयविक्लवं न्यगपगन्धहतो द्विरदो यथा ।। ७९ ।। बकुलराजबलाबलमीक्षितु नृपनियोगकराः पुरुषा गताः । अपगमस्य निवेदनसंभ्रमाः प्रतिनिवृत्य महीपतये जगुः ॥ ८० ॥ अपरपक्षपराभवसंश्रयात्प्रतिविबुद्धमुखाम्बुरुहा नृपाः ।
प्रजहषु जयदुन्दुभयो ध्वनं (?) जलधरा इव ते जलदागमे ॥ ८१ ॥ उदितबालरविप्रतिमद्युति प्रथमयौवनभूषितविग्रहम् । भुवनवल्लभमेकपति भुवः स्वजनमेव जनाः खलु मेनिरे ॥ ८२ ॥
शत्रुमर्दनका संकल्प
सुषेणके विजेता वकुलेश्वरको जब अपने गुप्तचरोंके द्वारा महाराज देवसेनके आ पहुँचने, दोनों सेनाओंकी विशालता तथा इन सबसे भी बढ़कर युवराज वरांगके अनुपम रणकौशलका पता लगा तो वह केवल नीतिके कारण ही नहीं अपितु किसी हद तक भयसे व्याकुल होकर अपने देशको उसी प्रकार लौट भागा था जिस प्रकार न्यगपकी (सिंह) तीक्ष्ण गन्धके नाक में पहुँचते ही मदोन्मत्त हाथी भाग खड़ा होता है ।। ७९ ।।
शत्रु पलायन
_महाराज धर्मसेन सच्चे आज्ञाकारी तथा कुशल गुप्तचर बकुलराजके सैन्य आदि बल तथा उसके छिद्रोंको देखने गये थे । किन्तु जब उन्हें उक्त शत्रुके पलायनका पता लगा तो वे महाराजको शीघ्र समाचार देनेके लिए उतावले हो उठे थे । फलतः शीघ्र ही लौटकर उन्होंने महाराजको उक्त समाचार दिया था ॥ ८० ॥
शत्रुपक्षका इस सरलतासे पराभाव हो जानेके कारण महाराजाओंको इतनी अधिक प्रसन्नता हुई थी कि उनके मुखकमल अनायास ही विकसित हो उठे थे। उनकी आज्ञासे तुरन्त विशाल विजय दुन्दुभियां बजने लगी थीं। ऐसा मालूम होता था वर्षाऋतु प्रारम्भ होनेपर मेघ ही कठोरतासे गरज रहे थे ।। ८१ ।।
युवराज वरांग अपनी शिक्षा तथा स्वभावसे समस्त गुणोंके आगार थे। उस समय उनका तेज उदीयमान बालरविके समान अनुरक्त (दो अर्थ है-थोड़ा लाल और अकर्षक ) तथा वर्द्धमान था, सारा शरीर अनवद्य यौवनके उभारसे आप्लावित था, अपने गुणों के कारण वे भुवन-वल्लभ थे, सारी पृथ्वीके एकमात्र पालक थे, तथा जनसाधारण उन्हें अपने सगे बन्धुकी तरह
मानता था ।। ८२ ॥
१. क चश्च ।
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विशतितमः
सर्गः
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