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सदयमनुपकाद्यासन्नतान्ताश्च दृष्ट्वा हृदयमपि वसन्तीोषित: संप्रपृच्छय । चरितपरिका तामात्मनः संनिवेद्य क्षपितरिपुबलौघः स्वस्थचित्तो बभूव ॥ ९१॥
मामा
वराङ्ग
इतिधर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते
स्वजनसमागमो नाम विंशतितमः सर्गः ।
विशतितमः सर्गः
चरितम्
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मातृभक्त वहीं पर लज्जा और प्रेमके भारसे झुकी हुई अनुपमा आदि प्राणाधिकाएं खड़ी थीं, उसने उनकी तरफ सहानुभूति तथा प्रेमपूर्वक देखा था, क्योंकि वे सब उसके हृदयमें विराजमान थों, किन्तु प्रकट रूपसे वह उनके विषयमें वहाँ न पूछ सका था। इसके उपरान्त कुछ समय तक वह अपने पराक्रमो को रुचिकर बातोंको करता हुआ वहीं बैठा रहा था, क्योंकि शत्रु सेनाका सदाके लिए तिरस्कार हो जानेके कारण उसका चित्त निश्चिन्त हो गया था ।। ९१ ।।
चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द-अर्थ-रचनामय बरांगचरित नामक धर्मकथामें
स्वजन-समागम नाम विंशतितम् सर्ग समाप्त ।
-मामRELATERESTHATIONASH
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IRSHERPATHI
7 १. म वसन्ती योषितः ।
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