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अष्टादशः
सर्गः
देशाकरग्रामपुराणि यानि बलद्वयनैकविबन्धनं च। य आवयोरेक इहावशिष्टस्तस्मै भवत्वेतदिति ब्रुवाणौ ॥ ७५॥ कुरु त्वमेकं प्रथम प्रहारं त्वं पश्य पश्येति च भयिन्तौ । वने गजेन्द्राविव जातदर्पावभीयतुस्तौ समराभिलाषौ ॥ ७६॥ शस्त्राणि वज्राग्निविषोपमानि नानाकृतीनि स्वरया प्रगृह्म।। परस्परालावयवान्प्रतीत्य व्यमुञ्चतां वीतभयौ महीशौ ॥ ७७॥ प्रवृद्धकान्तिद्युतिसत्त्वरोषः श्रीदेवसेनः प्रगृहीतचक्रः। लघ्वीन्द्र सेनस्य महाबलस्य चिच्छेद भास्वन्मकुटं च केतुम् ॥ ७८ ॥ तथेन्द्रसेनोऽतिविवृद्धमन्युविद्युत्प्रभा शक्तिमरं प्रगृह्य । श्रीदेवसेनं प्रति निर्ममोच ननोद सा तस्य किरीटमिद्धम् ॥७९॥
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'हमारे ग्राम, आकर, नगर तथा जितने भी देश हैं तथा दोनों सेनाओंके पास जो नानाविधकी सम्पत्ति तथा वैभव है, यह सब उसीके होवेंगे । जो हम दोनों से घोर संघर्षके बाद भी बचा रहेगा' तुम्हीं पहले एक प्रहारकरो, अच्छा देखो, तुम देखो॥ ७५ ॥
भर्त्सना तुम देखो आदि अनेक कटु वाक्यों द्वारा परस्परमें भर्त्सना करते हुए; जंगलमें यौवनके उन्मादसे मत्त एवं निर्भय दो भीमकाय हाथियोंके समान समरमें भिड़ जानेकी अभिलाषासे वे दोनों एक-दूसरेके अति निकट चले आ रहे थे ॥ ७६ ॥
बजके समान अभेद्य, अग्निके तुल्य दाहक तथा विषके सदश मारक अनेक आकृतियों तथा मापके शस्त्रोंको अत्यन्त त्वराके साथ उठाकर उन्होंने एक-दूसरेके आँख, कान, आदि अंगोंपर कुशलतासे लक्ष्य साधे थे। तथा निर्भय और निर्दय होकर पलक मारते, मारते आघात भी प्रारम्भ कर दिये थे ॥ ७७ ॥
घात-प्रत्याघात रणरंगमें मस्त महाराज देवसेनका क्रोध, सत्त्व, कान्ति तथा तेज और अधिक बढ़ रहे थे। उन्होंने अतिशीघ्रतासे उत्तम चक्रको उठाकर बड़े वेगसे महा बलवान मधुराधिप पर चला दिया था और देखते-देखते ही उसके भासमान मुकुट और केतुको काटकर फेंक दिया था ॥ ७८ ॥
इस प्रहारने इन्द्रसेनके क्रोधको सीमाके बाहरतक बहा दिया था, फलतः उसने बड़ी त्वरासे शक्ति तथा अर ( लम्बा। १. क विगृह्य । २. [ शक्तिधरां ] ।
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