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विंशतितमः
चरितर
सर्गः
इति बमोविरते वणिगीश्वरे वरतनुस्त्वथ चास्त्विति चोक्तवान् । अथ परान्नपतेललिताहयादयितुं समयश्च तदाभवत् ॥ ५३॥ विविधबन्दिमहाविटमागधस्फुटमुखोष्ठपुटप्रविजृम्भितः । जय जयेति जयावह जितस्त्वविरतध्वनिरास समन्ततः ॥ ५४ ॥ अपि च पर्वणि वृद्धिमथर्छतः' पवनघट्टितचारुतरङ्गिणः । ललितपूर्वपुरं नृपतेर्गमे जलनिधेः सकलध्वनिमादधौ ॥ ५५ ॥ हयरथद्विपपादविघट्टनात्स्फुटसमुच्छ्रितधूलिविधूसरः
छतलावधूसरः
। न ददशे खल तत्क्षणमम्बरं दिनकरश्च परिस्फूरदंशमान ॥५६॥ अपनयाशु जड स्वतुरङ्गमं मदविभिन्नकटद्विरदान्तिकात । तुरगपूर्वगतां च किशोरिकामपनयेति रवः परिशश्रये ॥ ५७॥
ASSITAMARPALHEARTHATARNAMAHESeaman
सार्थपति सेठ सागरवृद्धि जब अपनी अभिलाषा को व्यक्त करके चुप हो गये तब युवराज वरांगने प्रसन्नतापूर्वक कहा था 'जैसी आपकी आज्ञा'। इस वार्तालापके समाप्त होते-होते हो महाराज देवसेनके ललितपुरीसे प्रयाण करनेकी मुहूर्त आ पहुंची थीं ॥ ५३ ॥
महाराजकी युद्ध यात्राके समय चारों ओरसे 'जय, जय' की बहुत जोर की ध्वनि आ रही थी। महाराजके समय शकुन करनेके लिए ही विविध जातियोंके बन्दोजन, बड़े-बड़े विट तथा मागध लोग बड़े वेगके साथ अपने मुखको पूरा फैलाकर जोरसे ओठोंको बनाते हुए महाराजकी जय बोलते थे। वे एक क्षणके लिए भी न रुकते थे ॥ ५४ ॥
युद्ध यात्रा पूर्णमासीके दिन चन्द्रमाको देखकर समुद्र अपने आप ही ज्वाररूपसे बढ़ता है, उस पर भी यदि दैवयोगसे जोरकी हवा चलने लगे तो फिर उन्नत लहरोंके पारस्परिक आघातसे जो भयंकर शोर मचता है उसी प्रकार तीव्रतम शोरको करते हुए महाराज अपनी राजधानी ललितपुरसे निकले थे ।। ५५ ।।
रथोंकी दौड़, घोड़ोंकी टापों तथा हाथियों के पैरोंके भारसे मसले जाने पर जो धूलिके बादल उड़े थे। उनके द्वारा समस्त नभ मण्डल धुंधला हो गया था। उस समय यह अवस्था ही गयी थी कि आकाशमें पूर्णरूपसे चमकता हुआ सहस्र रश्मियुक्त दिनकर भी लोगोंकी आँखोंसे ओझल हो गया था ।। ५३ ।।
__'देखता नहीं है कि यौवनके उन्मादमें हाथीके गण्डस्थलोंसे मद जल बह रहा है, हे मूर्ख ! अपने चंचल घोड़ेको शीघ्र १.क वृद्धिमवार्चतः । १. [ नृपनिर्गमे । २. क जडः ।
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