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अष्टादशः
वराज चरितम्
सर्गः
केषांचिदङ्गान्यसिना 'चकर्ष पिपेष वीरो गदया शिरांसि । विदार्य केषांचिदुरांसि चक्रनिपातयामास वसुघरायाम् ॥ १०४॥ केषांचिदुत्क्षिप्तसुचामराणि छत्राणि चन्द्रोदयपाण्डुराणि।। धषि पुष्पध्वजकेतुमालाः शरावपूर्णानि सुधीश्चकर्त ।। १०५ ॥ शङ्कभिवर्तक्रमसौष्ठवाभ्यां सतोमराभ्यां स्थिरधीः कराभ्याम् । वर्माणि वर्मप्रतियातनानि क्षणादबिभेदाप्रतिमान्यरीणाम् ॥१०६॥ छिन्नाग्रहस्ता विमुखाश्च केचित्केचिन्नताः साजलयो विभीताः । केचिच्च तत्रैव विमोहमायुर्ललम्बिरेऽन्ये गजमस्तकेभ्यः ॥१०७ ॥ अन्तर्दधुर्गुल्मलतासु केचित्केचिच्च वाल्मीकशिखाधिरुढाः । केचित्तणादाः प्रतिमुक्तकेशा गतासवः केचिदुपेयुरुर्वीम् ॥ १०८ ॥
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धाराल असिके द्वारा वह किन्हीं शत्र ओंके अंग-अंग काट डालता था, दूसरों पर गदा चलाता था जिससे उनके शिर चूर-चूर हो जाते थे, तथा अन्य कितनेके ही दृढ़ वक्षस्थलोंको चक्रसे चीरकर पृथ्वीपर गिरा देता था ।। १०४ ।।
शत्र के कितने ही माडलिक राजाओंपर अब भी निर्मल चमर ढर रहे थे तथा चन्द्रमाकी कान्तिके समान धवल छत्र उनके मस्तकोंपर लगे हुए थे, किन्तु कश्चिद्भट इन सबको अपने बाणोंकी मारसे घासके समान काट रहा था, वैजयन्ती मालाओंसे भूषित दूसरोंकी केतुओं तथा बाण चढ़े हुए धनुषोंको भी अचूक लक्ष्य वेधक वह योद्धा नष्ट कर रहा था ॥ १०५ ।। ।
विजयपूर्णताको ओर अपने कर्त्तव्यके प्रति उसकी मति स्थिर थी अतएव शंखकी गोलाई समान अत्यंत गोल, पुष्ट तथा सुन्दर बाहुओं द्वारा वह विशाल तोमरको उठाता था और उसके सटीक आघातोंसे शत्रु ओंके उन कवचोंको भेद देता था जिनपर लगकर वज्र भी में वापस हो जाता था तथा दृढ़ता और अभेद्यतामें जिनकी तुलना ही नहीं हो सकती थी।। १०६ ॥
कितने ही योद्धाओंके हाथ कट जाते थे तो विचारे प्राण लेकर भागते थे। कुछ इतने अधिक डर गये थे कि प्रतिरोध किये बिना ही वे उसके आगे झुक गये थे और हाथ जोड़े खड़े थे। दूसरे कुछ उसे देखते ही मूच्छित होकर धराशायी हो गये थे, तथा अन्य कितने ही हाथियोंकी गर्दनोंपर लटक रहे थे । १०७॥
कश्चिद्भटका रणरंग कितने ही सैनिक झाड़ियों तथा लताओंमें जा छिपे थे। कुछ भागकर साँपोंकी वामियोंपर जा चढ़े थे । अन्य कितने १. [चकत ]। २. [विमोहमापु°]। ३. [ वल्मीक]।
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