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बराङ्ग
विंशतितमः सर्गः
चरितम्
अथ च युक्तिमदर्थसमन्वितं हितमिताक्षरसारसमुच्चयम् । अननिशम्य हि मन्त्रिवचोऽवदन्नपतिराश तथा क्रियतामिति ॥ २६ ॥ क्षितिपशासनतीव्रतया [-]' जनपदस्य विनाशभयेन च । स्वपतिभक्तितया च वचोहरा ललितसाह्वपुरं प्रययुद्धतम् ॥ २७ ॥ समभिवीक्ष्य तथोचितवृत्तितः क्षितिपतेरथ लेखमदर्शयत् । तमवगृह्य निधाय स मस्तके प्रतिविमुच्य तदर्थमबुध्यत ।। २८॥ समवतीर्य मृगेन्द्रधृतासनात्समुपविश्य ततोऽन्यदुपह्वरे ।
अभिजिजल्पिषुराप्ततमैः सह नृपतिराह्वयदाशु वणिग्नुपम् ॥ २९ ॥ आपका सगा-सम्बन्धी भी है । इसमें सन्देह नहीं कि यदि हम दूतोंको अभी भेज दें । तो वह समाचार पाते ही वे दौड़े चले आयेंगे, इसे आप ध्रुव सत्य माने' ॥ २५ ॥
महाराज धर्मसेनने मंत्रियोंके वचनोंको सुनते-सुनते ही समझ लिया था कि उनके वाक्य युक्तिसंगत थे, परिणाममें लाभप्रद थे, सब दृष्टियोंसे हितकर होते हुए भी अति संक्षिप्त थे, तथापि उनमें राजनीतिका सार भरा हुआ था। अतएव उनका कथन समाप्त होते ही उन्होंने मंत्रियोंसे कहा था 'आप लोग शीघ्र ही यह सब कर डालें' ।। २६ ॥
एक तो उस समय भूमिपाल धर्मसेनको आज्ञा ही तीव्र थी, दूसरे विलम्ब होनेसे अपने देशका नाश हो जानेकी आशंका थो, तथा इन सबसे बढ़कर थी; राजभक्ति; जिससे प्रेरणा पाकर उत्तमपुरका दूत बड़े वेगके साथ ललितपुर नगरको दौड़ा चला जा रहा था ॥ २७ ॥
दूतको देश-निष्ठा नगरमें पहुंचते ही वह सीधा राजभवनमें पहुंचा था तथा आवश्यक शिष्टाचार पूर्वक महाराज देवसेनके सामने जाकर उनका अभिवादन करते हुए उत्तमपुराधीशके लिखित पत्रको महाराजके समक्ष उपस्थित किया था। ललितेश्वरने उसे लेकर पहिले तो मस्तकसे लगाया था फिर खोलकर पढ़ा था और समस्त परिस्थितिको समझ गये थे ॥ २८॥
महाराज देवसेन अपने अत्यन्त विश्वस्त तथा अनुभवी लोगोंके साथ मत विनिमय करनेके लिए उत्सुक थे अतएव वे सिंहों पर बने आसन (सिंहासन) परसे उठकर किसी दूसरे एकान्त गृहमें जा बैठे थे और तुरन्त ही उन्होंने वणिक राजाको बुलवा भेजा था ॥ २९ ॥
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१. क ( जवः ), [तदा ].
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