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वराङ्ग चरितम्
विंशतितमः सर्गः
सुमतयोऽजितचित्रसुरावयो विनयतः समुपेत्य नरेश्वरम् । वचनमित्थमिदं हितमर्थवज्जगदुरेवमनिन्दितपौरुषम् ॥ २१॥ तव नरेश्वर सत्त्वपराक्रमौ सुविदितौ जगता' न विलचितौ । प्रतिविधानवियुक्ततया वयं परिचितेन च वक्तुमुपाश्रिताः ॥ २२ ॥ सखिजनाः स्वसुताः कृतपौरुषाः परबलस्य मदं प्रतिभज्जिनः । तव न सन्त्यरयोऽपि बलोत्कटाः कथमिदं स्वपरोक्ष्य कृतं त्वया ॥ २३ ॥ विगतगाधमयोदकमप्लवः समपलङययितुं विघटेत कः । रिपुबलार्णवमुत्क्रमित पुनर्न प न शक्यमपक्षवतस्तव ॥ २४ ॥ ललितसाह्वपुराधिपतिर्भृशं प्रियहितोऽहितदर्पविघाटनः । यदि वयं नरदेव वचोहरान प्रविसृजामहि चेद्धवमेष्यति ॥ २५ ॥
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महाराज धर्मसेनके पराक्रमको कीति सर्वत्र फैली थी। उस समय उनके महा बद्धिशाली अजितसेन, चित्रसेन, देवसेन आदि महामंत्री भी साथ चल रहे थे। जब प्रयाण रुक गया तो ये सब अति विनयपूर्वक महाराजके पास गये थे, और उनके हितकी भावनासे ही प्रेरित होकर उन सबने निम्न निवेदन महाराजसे किया था ।। २१ ।।
सुमंत्री सम्मति हे महाराज! जहाँ तक आपके पराक्रम तथा शक्तिकी बात है उन्हें सारा संसार जानता है तथा आज तक किसीने उनको नहीं लांघा है । अतएव हम आपसे जो निवेदन करने आये हैं उसे निसंकोच होकर सुनें कारण यह है कि इस बार हम प्रतिशोध लेनेकी पूरी तैयारीके साथ नहीं आये हैं ।। २२।।
आपके औरस पुत्र तथा सपक्षी राजा लोग ही इतने सफल पुरुषार्थों हैं कि वे हो सुनें। शत्रु सेनाके अहंकारको मिट्टी में मिला देते हैं। इसके अतिरिक्त यह भी आप जानते हैं कि आपके न तो अधिक शत्र ही हैं। और जो हैं; वे शक्तिशाली भी नहीं हैं। तब आपने इस समरयात्राको पहिले सोचे बिना ही क्यों आरम्भ कर दिया ।। २३ ।।
यदि कोई जलाशय इतना गम्भीर हो कि उसकी थाह न ली जा सके तथा इतना चौड़ा हो कि तैर कर पार न किया जा सके, तो आप ही बताइये उसे कौन लाँघ सकता है ? ठीक इसी प्रकार हे महाराज शत्रुसेना रूपो विस्तृत समुद्रको आप भी तबतक न लाँघ सकेंगे जब तक कि आप पक्ष ( मित्र राजाओं) सहित न हो जायंगे ।। २४ ।।
शत्रुओंके मानका मर्दन करनेवाला ललितपुर नामसे प्रसिद्ध नगरोका राजा देवसेन आपका प्रियमित्र हो नहीं है अपितु । १. क जगतां । २. [प्रविसृजेमहि ।
SELBARASAIRata
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