________________
वराङ्ग चरितम्
विंशतितमः सर्गः
अथ च धार्मिकसास्विक मानवैर्ब हुकलागुणशास्त्र विशारदैः । ललित पूर्वपुर प्रतिवासिभिश्चिरमरस्त सुखेन वणिग्नुपः ॥ १ ॥ नृपतिकान्तसुतां कुलनन्दिनीममरराजवधूप्रियदर्शनाम् । जनपदार्धहय विपनाटकैः समुपलभ्य न चैव मदं ययौ ॥ २ ॥ प्रवरहयंतलेषु च शर्वरीं नयत शीलगुणानथ पर्वसु । द्रविणर्मार्थषु साधुजनेषु च अनुभवन्विषयांच मनोहरान् सकृतकर्मफलोदयपाकतो । ललितनामपुरे पुरुषोत्तमः सुखमुवास नृपात्मजया तया ॥ ४ ॥
[
] ॥३॥
विंशतितम सर्ग
ललितपुरके नागरिक बड़े मन्दकषायी तथा धर्मरत थे, वे विविध कलाओं में दक्ष थे, समस्त गुणोंके भण्डार थे तथा नाना शास्त्रोंमें पारंगत थे । वास्तवमें ललित; उस ललितपुरके सब ही निवासियोंके ऐसे हो आचार-विचार थे । यही कारण था कि वणिक राजा कश्चिद्भट बहुत लम्बे अरसे तक उनके साथ भोगविलासमें लीन रह कर समय काट सका था ॥ १ ॥
सुखमग्न राजकुमार
महाराज देवसेनकी अत्यन्त सुन्दरी कन्या सुनन्दा उनके पूरे वंशको आनन्द देती थी, वह इतनी सुन्दरी और गुणवती थी । उसे देखते ही मनको वैसा ही आल्हाद प्राप्त होता था जैसा कि अमरोंके राजा इन्द्रकी बधूको देखकर होता है। ऐसी सुयोग्य पत्नीको आधे राज्यके साथ ही नहीं अपितु हाथी, घोड़ा आदि सेनाओं तथा नाटक आदि ऐश्वयोंके आधे भागके साथ प्राप्त करके भी विवेकी कश्चिद्भटको किसी प्रकारका अहंकार नहीं हुआ था || २ ||
विशाल तथा सुन्दर राजमहलों की छतपर वह अपनी रातोंको सुखसे व्यतीत करता था तथा अष्टाह्निका, दशलक्षण आदि पर्वोके दिनोंको शील आदि गुणोंके पालनके साथ काटता था। तथा वास्तवमें अभावोंसे सताये गये माँगनेवालों तथा सज्जन पुरुषों को सदा ही भक्तिभावसे दान देता हुआ पुण्यार्जन करता था ॥ ३ ॥
पूर्व जन्म में प्रयत्नपूर्वक किये गये शुभकर्मोंका परिपाक हो जानेके कारण उदयमें आये एकसे एक बढ़कर मनमोहक भोगों और विषयका रस लेता हुआ वह महापुरुष कश्चिद्भट ललितपुरकी राजदुलारी सुनन्दाके साथ सुखपूर्वक निवास कर
रहा था ॥ ४ ॥
१. म मुदं ।
Jain Education International
२. [ नयति ] ।
For Private Personal Use Only
विशतितमः सर्गः
[ ३७८ ]
www.jainelibrary.org