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बराङ्ग
व्रते दिवं यान्ति मनुष्यवर्या दिवश्च सारोऽप्सरसो बराजयः। व्रताभिगम्या यदि देवकन्या इयं हि ताभ्यो वद केन होना ॥ ६४ ॥ सा चापि तन्वी त्वयि सक्तभावा प्रसीद नाथानुग्रहाण भद्राम् । इति ब्रुवाणां परिशुद्धबुद्धिः सहेतुकं वाक्यमिदं जगाद ॥६५॥ ये शोलवन्तो मनुजा व्यतीता दृढवतास्ते जगतः प्रपूज्याः । परत्र देवासुरमानुषेषु परं सुखं शाश्वतमाप्नुवन्ति ॥६६॥ न 'मज्जयन्त्यम्बनिधौ सुशोलान्न दग्धमीशो ज्वलचिरश्मिः। न देवता लवयितु समर्था विघ्ना विनश्यन्ति दशामयत्नात् ॥ ६७ ॥
एकोनविंशः सर्गः
छोड़कर तुम परोक्ष फलकी खोज करते हो, जो संभवतः कहीं है भी नहीं, अतएव मेरी दृष्टिमें तो आप मूर्ख ही हैं, कारण, आप संदिग्ध वस्तुको अत्यधिक महत्त्व देते हैं ।। ६३ ।
इसके सिवा व्रतोंका पालन करनेसे स्वर्ग ही तो प्राप्त होता है और स्वर्गका सार भी तो सुकुमार सुन्दरी अप्सराएं हो हैं । यदि कठोर व्रतोंका पालन करने पर देवकन्याओंका संगम ही प्राप्त होता है। तो सोचो, हमारी सखी मनोरमा देवियोंसे किस योग्यतामें कम है ।। ६४ ॥
सखोकी युक्तियाँ हे प्रभो! सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह तन्वी भी अपने हृदयको तुम्हारे चरणोंमें अर्पित कर चुकी है, अतएव अनुग्रह करिये, उस साध्वी पर कृपा करिये। इस प्रकार कहकर जब वह चुप हो गयी, तो कश्चिद्भटने मर्यादापूर्वक उससे निवेदन किया था क्योंकि उसकी मति पूर्णरूपसे शुद्ध थी।। ६५ ।।
इस संसारमें जो शुद्ध आत्मा शीलव्रतको पालन करनेवाले हए हैं तथा जो किन्हीं परिस्थितियोंमें पड़कर भी धारण किये गये व्रतोंसे नहीं डिगे थे वे समस्त संसारके आज भी पूज्य हैं। ऐसे चरित्रनिष्ठ आत्मा ही अगले जन्मोंमें देव, असुर तथा मनुष्य योनियों में जन्म ग्रहण करके निरन्तर, सतत तथा सम्पूर्ण लौकिक सुखोंका प्राप्त करते हैं ।। ६६ ।।
शीलव्रत-महिमा जो शीलव्रतसे नहीं डिगे हैं वे समुद्र में गिर जाने पर भी नहीं डूबते हैं, भयंकर रूपसे जलतो हुई ज्वालाकी लपटें भी उन्हें जलाने में समर्थ नहीं होती हैं, देवोंमें भी यह सामर्थ्य नहीं है कि वे उनका अपमान कर सके, तथा संसारके सब हो विघ्न उनके मार्गमें आकर अपने आप ही नष्ट हो जाते हैं ।। ६७ ।। १. [ मम्जयत्यम् निधिः] ।
IRDLAGPURPURPURINTROमाचार
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जन्य
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