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DREAME
अष्टावक्षः
बराम चरितम्
सर्गः
इतोऽमुतो भग्नविशीर्णसेनामात्मानमत्यन्त सुरक्षताम् । समीक्ष्य चापस्य च भङ्गमाजी विपन्नबध्वस्त्रवपुर्बभूव ॥ १०॥ ततोऽवरुह्माशु स मेघनादात्क्षतस्रवच्छोणितवारणेन्द्रात् । हयं समारुह्य तदातिभीतः पराप्रतस्थे मधुरावनीशः ॥ १०१॥ गते नरेन्द्र मधुराधिपे तु विनायकं त्रस्तभयेतवीर्यम् । बलं तदा वातसमूहघातविशीर्णतुलप्रतिमं बभूव ॥ १०२॥ ततश्च कश्चिद्भट जितश्रीहतावशेष बलमाजिघांसन् । अनुप्रतस्थे सशरोघवर्षी रूपी प्रजाः संहरतीव कालः ॥ १०३ ॥
तबतक मथुराकी विशाल सेना अस्तव्यस्त होकर इधर-उधर भाग रही थी। राजा इन्द्रसेनका स्वयं अपना शरीर भी वाणोंकी बौछारसे छिद-भिद गया था, इसके अतिरिक्त वास्तविक संघर्षके समय उसका धनुष भी टूट गया था। यह सब देखकर । विचारे की बुद्धि ही कुण्ठित नहीं हुई थी अपितु उसके अस्त्रों तथा शरीरकी लगभग वैसी ही अवस्था थी ।। १०० ॥
उसका मेघनाद नामका गजराज भी इतना क्षतविक्षत हो गया था, कि उसके सब घावोंसे रक्तकी धाराएँ बह रहो थी। उसका ( इन्द्रसेन ) साहस गल चुका था, भयसे काँप रहा था। अतएव अपने हाथीसे उतरकर वह शीघ्रतासे एक घोड़ेपर A आरूढ़ हुआ और वेगके साथ पीछेको भाग गया था ॥ १०१ ॥
मथुराधिप इन्द्रसेनको भीरुओंके समान पलायन करनेसे शूरसेनकी सेना नायकहीन हो गयी थी। सारी सेना भयसे व्याकुल थी और भयके प्रवाहमें उसका पराक्रम न जाने कहाँ बह गया था। उस समय उस विशाल सेनाको देखनेपर वही दृश्य दृष्टिगोचर होता था जो कि वायुके प्रबल प्रवाह उड़ी हुई रूईका होता है ॥ १०२॥
___ इन्द्रसेनके भागनेका फल विजय पर विजय प्राप्त करनेके कारण कश्चिद्भटका तेज और भी निखर आया था, वह शेष बचे हुए शत्रुबलको भी नष्ट कर देना चाहता था। इसी अभिलाषासे प्रेरित होकर वह बाणोंकी मूसलाधार वृष्टि कर रहा था। उसे देखकर लोगों को यही भ्रम हो जाता था कि 'क्या कोई शरीर यम प्रजाओंका संहार कर रहा है ?' ॥१०३॥
Reioमामामामा-III
[३५२४
१. [°शरक्षताङ्गम् ]।
२. क भयोत्यवीर्यम् ।
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