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बराङ्ग चरितम्
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मयाद्य ।
सोऽपीन्द्रसेनस्तनयावभङ्गाद्विषां प्रवृद्ध द्विगुणातिरुष्टः । समित्समिद्धाग्निरिव प्रकामं जज्वाल जात्यादिमदावलिप्तः ॥ ८८ ॥ धिक्शूरसेनाधिपतित्वलक्ष्मीं fuगिन्द्रसेनश्वमिदं निर्देवसेनां यदि नैव कुर्या महीमिमां सागरवागुरान्ताम् ॥ ८९ ॥ इति ब्रुवन्नेव सुनिश्चितार्थो विपन्नहस्तादवतीर्य नागात् । द्विषदेककालं सुकम्पितं वारणमारुरोह ॥ ९० ॥ ततोsस्तु सम्यक्प्रभवान्गुणान्स्वान्प्रकाशयामास रणे प्रचण्डः । पुनर्दृष्टिपथोपनीतं द्विषवलं स्थातुमलं न तस्य ॥ ९१ ॥
मदान्धमन्यं
उपेन्द्रको मृत्युका परिणाम
दूसरी ओर मथुराधिप था जो स्वभावसे ही जाति, प्रभुता, आदिके अहंकारमें चूर था, फिर उस समय प्राणप्रिय पुत्र की मृत्यु तथा शत्रुके बलको बढ़ता देखकर उसका रोष दूना हो गया था। उसका वही हाल था जो नया ईंधन ( आहुति ) पड़ जाने पर धधकती हुई यज्ञकी ज्वालाका होता है ॥ ८८ ॥
शूरसेन (मथुराराज ) देश के एकच्छत्र अधिपतित्वको धिक्कार है, मेरा इन्द्रसेन होना भी व्यर्थं है तथा मेरे प्रताप और पुरुषार्थ को भी धिक्कार है, यदि मैंने आज ही इस विशाल पृथ्वीको जो विशाल महासागररूपी बन्धन या सीमा वेष्टित है, इसे यदि देवसेन रहित न कर दिया तो ॥। ८९ ।।
क्रोध के आवेशमें पूर्वोक्त वचनोंको कहते-कहते उसने अपने अन्तिम कर्तव्यका निश्चय कर लिया था। अतएव वह सूड़ कटे हाथी पर से उतरकर एक दूसरे सुसज्जित गजराज पर आरूढ़ हुआ था। जो कि मदसे अन्धा हो रहा थ, तथा नाम और काम दोनों के ही द्वारा एक काल था ।। ९० ।।
इसके उपरान्त रणमें अत्यन्त कर्कश मथुराधिपने अपनी उन सब रणकुशलताओंका प्रदर्शन किया था जिन्हें उसने भलीभाँति सीखा था तथा अभ्यास किया था। उस समय उसका यह हाल था कि जो कोई भी शत्रु उसके दृष्टिपथपर 'आता था वह एक क्षण भर भी जीवित न रह पाता था ॥ ९१ ॥
१. क प्रवृद्धिः ।
२. [ ततस्तु ] ।
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अष्टादशः
सर्गः
[ १४९ )
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