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बराङ्ग चरितम्
तेषां पुनः
प्रद्रवतां ध्वजाश्च छत्राणि चामीकरदण्डवन्ति । विधूतवालव्यजनानि चैव पेतुः पताकाश्च सवैजयन्त्यः ॥ १८ ॥ उपेन्द्रसेनस्तु विलोक्य सेनां विभज्यमानां विजयप्रधानैः । विहाय लज्जामय विद्रवन्तीमपारसत्त्वः प्रसभं चुकोप ॥ १९ ॥ संनाहिनः स्वान्करिणां समूहांस्ततस्तिरस्कृत्य धनुर्विकृष्य । उपेन्द्रसेनस्त्वरितो ऽभ्यगच्छज्जिघांसया तं विजयस्य सैन्यम् ॥ २० ॥ आयातमारोपितचारुचापं शरैः किरन्तं रिपुवाहिनीं ताम् । स्वतेजसा प्रज्वलितार्कभासं मेने जनः कालमिवोग्ररूपम् ॥ २१ ॥
सैनिकों के वाण पड़ रहे थे क्योंकि शत्रु सैनिक पराङ्मुख होकर अत्यन्त अस्त-व्यस्त होकर भाग रहे थे। सैनिकोंके समान ही मत्त कुञ्जरों की देहके पिछले भाग पर शस्त्र पड़ रहे थे ।। १७ ।।
जिस समय वे विमूढ़ होकर भाग रहे थे उसी समय उनकी ध्वजाएँ अपने आप गिर गयी थीं, उत्तम सोनेसे बने डंडों से युक्त छत्र लगातार गिर रहे थे, पहिले जो सुन्दर विजने हिलाये जा रहे थे अब उनको कोई सम्हालता ही न था तथा वैजयन्ती मालाओं से वेष्टित पताकाएँ भी भूमिको चूम रही थीं ।। १८ ।।
उपेन्द्रसेन ने देखा कि विजयमंत्रीके सेनापति उसकी सेनाको खंड-खंड करके खदेड़े दे रहे हैं तो उसके क्रोधकी सीमा न रही थी । क्रोधके आवेशमें उसने लौकिक लाज तथा मर्यादाको भुलाकर अपने सैनिकोंपर बुरी तरह बिगड़ना प्रारम्भ कर दिया था ।। १९ ।।
शत्रुकी विवेकहीनता
सेनाओंके द्वारा सुरक्षित होनेके कारण साधारतया उसकी सेना कठिनाईसे जीती जा सकती थी । किन्तु क्रोधके आवेशमें उसने गजसेनाकी उपेक्षा करके अपने प्रबल धनुषको ही खींचा था। विजय मंत्रीकी विजयी सेनाका संहार करनेकी अभिलाषासे प्रेरित होकर उपेन्द्रसेन उक्तरूपमें ही शीघ्रतासे बढ़ रहा था ॥ २० ॥
अपने विशाल तथा दृढ़ धनुषपर बाण चढ़ाकर शत्रुकी सेनापर मूसलाधार इषुवर्षा करता हुआ वह बड़े वेगके साथ बढ़ा आ रहा था, उसका उस समयका उग्र तेज मध्याह्नके सूर्यके उद्योतके समान चमक रहा था फलतः विजयके सैनिकोंको वह यमके समान भयंकर लगता था ।। २१ ।।
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अष्टादशः सर्गः
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