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अष्टावक
बराङ्ग चरितम्
सर्गः
घण्टारवोन्मिश्रिततूर्यघोषं रत्नप्रभाह पितभानुभासम् । गजेन्द्रकेतुं प्रतिलक्ष्यमाणं गजाधिपं स्वप्रतिमल्लसंज्ञम् ॥ २६॥ आरुह्य नीलाद्रिस'मासकल्पं कश्चिद्भट बालरविप्रकाशम् । घनन्तं स्वसैन्यं प्रसमीक्षमाणस्तमैन्द्रसेनिः प्रसहन्नुवाच ॥ २७॥ किं वा स्ववंशानुचितेन तेन तवार्घराज्येन मुखेन मृत्योः । सुनन्दया वा किमु कालरात्र्या जीवन्नरः पश्यति भद्र भद्रम् ॥ २८॥ नपैनुपाणां समरे प्रवृत्ते नैवासि योग्योऽत्र वणिक्सुतत्वात् । अपोह्य थास्मत्पुरतोऽल्पबुद्ध न्यूने वयं नो भजमुच्छ्यामः ॥ २९॥ लप्सयेऽहमुशिसुतामिति त्वं दुराशया क्लेशमुपैष्यकस्मात् ।
तादृग्विधं निस्त्रपमप्रवीणं न हन्मि निष्कारणमाशु याहि ॥ ३० ॥ वह अप्रतिमल्ल नामके गजरत्न पर आरूढ़ था जिसके घंटाका धीर गम्भीर आराव तूर्य आदि बाजोंकी ध्वनिमें भी ऊँचा था, उसके गण्डस्थलों आदि अंगोंपर पड़े रत्नोंकी कान्ति सूर्यको प्रभाको भी मन्द कर देती थी, वह अपने ऊपर फहराते हुए ऐरावतके चित्रयुक्त केतुके द्वारा दूरसे पहिचाना जा सकता था तथा उसकी काया नीलगिरि पर्वतके विस्तारके समान थी॥ २६ ॥
इसपर विराजमान महावीर कश्चिद्भट प्रातःकालके सूर्यके समान प्रकाशित हो रहे थे। वे निर्दयतापूर्वक शत्रुकी । सेनाका संहार कर रहे थे। उन्हें ऐसा करता देखकर मथुराधिप इन्द्रसेनके पुत्रने जोरसे हँसते हुए उनको ललकारा था ॥ २७ ॥
उपेन्द्रको वोक्ति हे भद्रपुरुष ! ललितेश्वरके आधे राज्यसे तुम्हें क्या लाभ होगा? राज करना तुम्हारे वंश ( वणिक् ) में अनुचित ही है ( वणिक स्वभावसे नम्र होता है अतएव शासन नहीं कर सकता है ) क्योंकि शासन तो सीधा मृत्युका मुख ही है । इसी प्रकार सुनन्दाको पाकर भी तुम्हें क्या रस मिलेगा ? वह भी तुम्हारे लिए कालरात्रिके समान है ॥ २८ ॥
प्राण बचाओ, मनुष्य जियेगा तो अनेक अभ्युदयोंको पायेगा। यहाँपर राजा लोग राजाओंके साथ लड़ रहे हैं फलतः तुम इस संग्राममें सम्मिलित होनेके अधिकारी नहीं हो, कारण तुम एक सार्थपतिके पुत्र हो । अतएव हे क्षुद्रबुद्धि ? मेरे सामनेसे शीघ्र ही हट जाओ, क्योंकि हम योद्धा लोग अपनेमें नीच पर हाथ नहीं उठाते हैं ॥ २९ ॥ _ 'मैं पृथ्वीपति देवसेनकी राजकुमारीसे व्याह करूँगा।' ऐसी दुराशासे प्रेरित होकर तुम अकारण ही महान कष्टोंको १. क °समान। २. क प्रसमन्, [ प्रहसन् ]। ३. [ अपेह्यथास्मत् ] ।
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