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बराङ्ग चरितम्
अन्योन्यमर्माणि निरीक्षमाणावन्योन्यशस्त्राणि च वञ्चयन्तौ । स्वसन्धिमर्माण्यभिपालयन्तौ शार्दूलपोताविव भसंयन्तौ ॥ ४४ ॥ सर्वायसैः प्रासवरैश्च शूलैश्चक्रैश्च गोलायसंशङ्कभिश्च । 'सभिण्डिमालैः कणपैश्च तीक्ष्णरनेरिवादि क्षिपतः स्म तूर्णम् ॥ ४५ ॥ उपेन्द्रमुक्तानि वरायुधानि विकुण्ठितान्यप्रतिमल्लमूनि । मुखे ममज्जुर्वणिजात्मजेन मुक्तानि तानीन्द्रसुतहिपस्य ॥ ४६ ॥ अथेन्द्रसेनस्य सुतेन मुक्ता ममज्जु मूर्ना प्रतिमल्लनाम्नः । बलाहकस्योन्नतकुम्भभेदं चकार कश्चिद्भटमुक्तशक्तिः ॥ ४७॥
अष्टादशः सर्गः
वाण धारावाही रूपसे उनके बीचके आकाशमण्डलको वैसे हो ढक लेते थे जैसे कि वर्षाऋतुमें मूसलाधार बरसती हुई वृष्टि व्याप्त कर लेती है ॥ ४३ ॥
दोनों ही एक दूसरेके मर्मस्थलों तथा छिद्रों ( अरक्षित अंगों ) को लक्ष्य बना रहे थे। इससे भी अधिक तत्परतासे आपसी आघातों और शस्त्रोंकी मारको कुशलतासे बचा जाते थे। अपने-अपने शरीरोंकी संधियों तथा सुकुमार स्थान नेत्र आदिको पूर्ण रक्षा कर रहे थे, सिंहके किशोरोंके समान एक दूसरेपर गुर्रा रहे थे ।। ४४ ॥
नीचेसे ऊपर तक लोहे, तथा लोहेसे बनाये गये बढ़िया प्रास ( फरसेका भेद ) शूल (विशेष भाला ) चक्र तथा गोलाकार लोहेकी ही विशाल वरछियोंके द्वारा परस्परमें प्रहार करते थे, तथा भिन्दिपाल ( दण्डाकार अस्त्र ) कणप (बरछा-भाला) आदि अत्यन्त धाराल शस्त्रोंके द्वारा वैसे ही आघात कर रहे थे जैसे एक पर्वतपरसे दूसरे पर्वत पर आक्रमण हो रहा हो ॥ ४५ ॥
मथुराके युवराज उपेन्द्रके द्वारा चलाये गये सब शस्त्रास्त्र अप्रतिमल्ल हाथीके मस्तकसे टकराकर बिल्कुल कुण्ठित होना जाते थे। किन्तु तथोक्त वणिक् पुत्रके हाथोंसे मारे गये अस्त्र इन्द्रसेनके सुतके हाथीके मुखमें लगातार धंसते जाते थे॥ ४६॥ - इसके बाद ही उपेन्द्रसेनके द्वारा फेकी गयी महाशक्ति हस्तिरत्न अप्रतिमल्लके शिरमें आकर चुभ ही गयी थी। किन्तु जब वेगके साथ कश्चिद्भटने शक्तिको चलाया तो उसने मथुराके युवराजके हाथी बलाहकके उन्नत कुम्भोंको फोड़ ही डाला था ।। ४७ ॥
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१. [ सभिन्दिपालैः ] !
२. क ममज्जु, [ ममज्ज मूनि ] ।
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