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बराङ्ग चरितम्
अष्टादशः सर्गः
शिक्षाबलेनात्मपराक्रमेण छिन्नैकहस्तः पुनरैन्द्रसेनिः । मुहर्तमेवं युयुधेऽतिवीरो भग्नकदन्तो द्विरदो यथैव ॥ ५७॥ कश्चिद्भटोऽस्त्राण्यमुचद्विशङ्को द्वाभ्यां भुजाभ्यां द्रुतमायताभ्याम् । जवेन गत्वा विविशुः शरोरे यथोरगेन्द्रा विवरेऽच लस्य ॥५॥ उपेन्दसेनस्य वरायुधानि सव्येन हस्तेन विनिःसतानि । ययुः पुनस्तानि च मन्दमन्दं लूनकपक्षा विहगा यथैव ॥ ५९ ॥ निर्वीर्यतां राजसुतस्य बुद्धवा कश्चिद्भटश्चारुभटोऽतितूर्णम् । गजं गजेन्द्राप्रतिमल्लनाम्ना वलाहकं वायुरिवोन्म'मर्धी ॥ ६०॥ दिवा इषन्तं प्रतिभग्नदन्तं बलाहकं चाप्रतिमल्लनागः।
प्रहत्य तूर्ण करपावदन्तहस्तेन हस्तं करिणो न्यका'सीत् ॥६१॥ इन्द्रसेनके पुत्रका यद्यपि एक हाथ कट चुका था तो भी उसकी आयुधशिक्षा तथा पराक्रम इतने परिपूर्ण थे कि उनके बलपर ही वह अतिवीर एक मुहूर्त पर्यन्त अपने शत्रुसे वैसे ही भिड़ता रहा था जैसे कि मत्त हाथी एक दाँत टूट जानेपर भी अपने प्रतिद्वन्द्वी हाथीसे टक्कर लेता रहता है ॥ ५७ ।।
इस अवस्थामें अपाततः कश्चिद्भट निशंक हो गया था। तथा शीघ्रतासे चलती हुई अपनी दोनों विशाल बाहुओंके द्वारा शत्रुपर सतत शस्त्र बरसा रहा था। वे सब शस्त्र वेगसे शत्रुतक पहुँच कर उसके शरीरमें ऐसे फंस रहे थे जैसे कि पर्वतके छिद्रोंमें बड़े-बड़े सांप घुसते हैं ।। ५८ ॥
उपेन्द्रसेन भो अपने बाँये हाथके द्वारा उत्तमसे उत्तम शस्त्र चला रहा था किन्तु एक हाथके बलसे पर्याप्त प्रेरणा न मिलनेके कारण वे शस्त्र धीरे-धीरे जाते हुए ऐसे लगते थे मानो एक-एक पंखा बटे पक्षी ही उड़े जा रहे हैं ।। ५९ ॥
द्वन्द्वका चरमोत्कर्ष कुशल तथा सुन्दर योद्धा कश्चिद्भटको इन्द्रसेनके राजपुत्रकी वीर्यहीनताको समझनेमें देर न लगी, उसे अकर्मण्य जानकर उसने हस्तिराज अप्रतिमल्लको शत्रुके वलाहक नामके हाथीपर बढ़ा दिया था जो कि वायुके समान वेगसे उसपर जा टूटा था ।। ६०॥
___विचारे बलाहकका एक दाँत पहिले ही टूट चुका था। वह तो किसी प्रकार वीरगतिकी कामना कर ही रहा था। १. [ °ममद ] | २. [ न्यकाक्षीत् ] ।
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