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वराज
चरितम्
सप्तदशः सर्गः
मत्तद्विपानां चरणाभिघातैः खुरावपातैर्वरवाजिनांच। पदातिपात रथनेमिन? रजस्ततानाम्बरदिग्मुखानि ॥६५॥ अभ्यर्णयोगात्प्रतिमिश्रिताश्च रजोऽवतानान्मतिविभ्रमाच्च । प्रहत कामाः प्रसमुद्यतार्था न जज्ञिरे ते स्वजनाजनांश्च ॥६६॥ एवं प्रवृत्ते समरेऽतिघोरे परस्पराघातरवातिभीता। रजःपटागुठितविग्रहा सा मही न रेजे सभयाङ्गनेव ॥ ६७ ॥ ते चापि योधाः पिहिताक्षिवक्त्राः करावमर्शप्रतिबद्धसंज्ञाः । चिरादिवात्मप्रियबन्धुवन्नाश्लिष्यते मोचयित समर्थाः ॥ ६८॥ नृणां हयानां करिणां बृहद्भिवणैर्महच्छोणितमुद्रिरभिः। रणाजिरोत्कीर्णरजः शशाम प्रावृट्पयोदैरिव रेणुरुाः ॥ ६९ ॥
समरस्थली मदोन्मत्त हाथियों के भारी पैरोंसे लगातार रोंदे जानेके कारण, हृष्टपुष्ट तथा फुदकते हुए बढ़िया घोड़ोंकी टापोंकी मारसे, पदाति सेनाको दौड़ धूपके कारण तथा विशाल रथोंके पहियोंके द्वारा कूचो गयी समरस्थलीसे उड़ी हुई धूलने समस्त दिशाओंको ढक लिया था ॥६५॥
इस समयतक दोनों सेनाएँ इतनी निकट आ गयी थीं कि दोनों पक्षोंके सिपाही आपसमें मिल गये थे, इस कारणसे, धूलके सर्वदिक फैलावके कारण अथवा बुद्धिभ्रष्ट हो जानेके कारण ही सैनिक प्रहार करनेकी अभिलाषासे जब शस्त्र उठाकर बढ़ते थे तो अपने सपक्षी और विपक्षीको भी नहीं पहिचान पाते थे ।। ६६ ।।
इस प्रकारसे अत्यन्त भयंकर और घोर युद्ध चलते रहने पर, शूरोंके पारस्परिक आघातोंसे अत्यन्त भीत तथा धूलरूपी साड़ीसे अपने शरीरको ढंकनेवाली पृथ्वी उसी प्रकार शोभित हो रही थी जैसी कि कोई डरी हुई कुलांगना प्रतीत होती है ॥६७।।
योद्धाओंके मुख तथा आँखें धूलसे भर गयी थीं फलतः न वे बोल सकते थे और न देख सकते थे । केवल एक दूसरेका हाथ के छूनेसे ही उन्हें किसीका ज्ञान होता था। फलतः वे दीर्घ प्रवासके पश्चात् मिले हुए घनिष्ठ बन्धु बान्धवोंके समान एक । दूसरेको गाढ़ रीतिसे बाहुपाशमें बाँध लेते थे और उससे छूटनेमें असमर्थ हो जाते थे॥ ६८॥
मनुष्य, घोड़े तथा हाथियोंको इस संग्राममें बड़े-बड़े घाव लगे थे जिनसे रक्त ही नहीं निकला था अपितु रक्तकी १. म नेमिनधेः।
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