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वराङ्ग चरितम्
देते थे और वे उनतक पहुँच न पाते थे। दूसरे इनसे भी अधिक कुशल थे वे उन्हें बीचमें ही रोककर पकड़ लेते थे और दूसरे ही क्षण उन्हें उनके चलानेवालोंपर ही चला देते थे ॥ ७८ ॥
पर्वतके समान विशाल होते हुए भी वेगसे बढ़ते हुए गज, गजोंसे भिड़ रहे । अश्वारोही अश्वारोहियोंके साथ तुमुल युद्ध करते तथा पैदल सैनिक पैदल सैनिकोंपर टूट रहे थे ॥ ७९ ॥
गजैर्गजाः प्रस्फुरवद्रिकल्पा रथे रथाश्वेत्कृतताः समेता ( ? ) । तदातियुध्यन्त हयैर्हयास्ते पदातयस्तत्र पदातिभिश्च ।। ७९ ।। गजास्तुरङ्गाश्च विपन्नदेहाः क्षितौ पतन्तः करुणं 'चकूजुः । नरा वराका युधि भीरवोऽन्येऽप्यलब्धकामा मरणं प्रयाताः ॥ ८० ॥ Maraणानां रणकर्कशानां वक्षस्स्थलेभ्यः स्रुतरक्तधाराः । युतं विरेजुः कृतसाहसानां शैलेन्द्रभित्तिष्विव धातुधाराः ॥ ८१ ॥ महाजिभूमौ रुधिराक्तगात्रा प्रभग्नमातत रथाश्ववृन्दा | बहिर्गतान्त्राभविलम्बमाला सन्ध्याभ्ररागं सकलं बभार ॥ ८२ ॥ क्वचिद्गजानां शव संकटत्वात्क्वचिद्धयाङ्गावयवैकदेशात् । क्वचित् कबन्ध प्रतिनर्तनाच्च महारणो भीमतमो बभूव ॥ ८३ ॥
जब हाथियों और घोड़ोंके शरीर क्षत-विक्षत हो जाते थे तो वे पर्वतकी शिखरोंकी भाँति पृथ्वीपर गिरते थे और अत्यन्त करुण चीत्कार करते वे तथा कितने ही क्षुद्र प्राणी जो स्वभावसे भीरु थे वे अपनो लड़नेकी अभिलाषा तथा उसके उत्तरकालीन फलोंको बिना पाये ही अकारण ही मोतके घाट उतर गये थे ॥ ८० ॥
कितने ही वीर प्रकृति से ही भयंकर रूपके कठोर योद्धा थ, उनके ऊपर घात पर घात पड़ रहे थे। उसके सुदृढ़ विशाल वक्षस्थलोंसे रक्तकी नदी बही जा रही थी किन्तु वे तब भी साहसपूर्वक लड़ते हुये खड़े थे। उस समय उनकी वही शोभा थी जो कि किसी विशाल - उन्नत पर्वतकी होती है जब कि उससे गेरू घुले जलकी धार बहती है ॥ ८१ ॥
इस महासमरकी पूरी रणस्थली रुधिरको धारसे आर्द्रा हो गयी थी, उसपर टूटे फूटे रथ, खण्डित अश्व और कटे छटें हाथियों के शव पड़े थे, मृत शूरों तथा जन्तुओं के शरीरोंसे बाहर निकलो आतोंकी मालाएँ उस पर पड़ी थीं अतएव उसकी पूरी की पूरी छटा संध्याकालीन मेघोंके समान हो गयी थी ॥ ८२ ॥
१.[च]
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वीभत्सतामें कवि
किसी स्थान पर मरे हुए हाथियोंकी इतनी देहें इकट्ठी हो गयी थीं कि वहाँ निकलना भी असंभव हो गया था, कहीं २. [ द्रुतं ] ।
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सप्तदशः
सर्गः
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