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बराङ्ग चरितम्
न श्रेष्ठपुत्रस्त्ववणिक्स्वभावान्न प्राकृतः कर्माणि किलकेन पुलिन्दसेना
rafण
विशेषवन्ति
हता
विजित्येति किमत्र चित्रम् ॥ १०९ ॥
देवेन देवेन्द्रसमेन साकं श अथ गुणगणमुक्त्वा श्रेष्ठिनस्ते सुतस्य, नृपसचिवपुरोधाः शिष्टमित्रेष्टवर्माः ' । इति जगदुररीणां धारयन्ती मनांसि, नदतु विजयिनी नो युद्धसन्नाहभेरी ॥ ११० ॥ नृपतिरनुनिशम्य क्षेमयोगावहानि, श्रुतविनयधराणां मन्त्रिणां तद्वचांसि ।
श्रुत परिणतदुद्धिस्त्वदर्चाः २ प्रपूज्य रिपुबलमय तीर्थं निश्चितार्थो बभूव ॥ १११ ॥ इति धर्मंकथोद्देशे चतुर्वंर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते राजसंक्षोभो नाम षोडशः सर्गः ।
'वह सेठका बेटा हो ही नहीं सकता क्योंकि उसके स्वभावमें वणिक्-सुलभ एक भी बात नहीं है, उसे जनसाधारण भी नहीं माना जा सकता है क्योंकि उसका एक-एक लक्षण राजपुत्रत्वको सिद्ध करता है। उसके आचार-विचारमें ऐसे ही लक्षण अधिक देखे गये हैं जो कि क्षत्रियोंमें ही हो सकते हैं ॥ १०८ ॥
मदोन्मत्त हाथी के समान उद्दण्ड तथा निरंकुश भीलोंको बारह हजार प्रमाण सेनाको केवल एकाकी कश्चिद्भटने मारकाट कर साफ कर दिया था। तब देवोंके अधिपति वज्रायुध के समान आपके साथ वह शत्रुओंको जीतेगा इसमें कौन-सी आश्चर्यकी बात है ।। १०९ ।।
१. [ वर्गा ] ।
युद्धघोष
इस प्रकार सेठ सागरवृद्धि धर्मपुत्र के समस्त गुणोंकी प्रशंसा करके महाराज देवसेन, महामंत्री लोग, पुरोहितों, मित्र राजाओं तथा शिष्ट हितैषीजनोंने एक साथ यही कहा था कि युद्धकी तैयारीकी सूचना देनेवाली हमारी 'विजयिनी' नामकी महाभेरी बजायी जावे, जिसके शब्दोंको सुनकर शत्रुओंके हृदय काँप जावें ॥ ११० ॥
'महाराज देवसेनने क्षेमकुशल आदिके सूचक मंत्रियों के वचनोंको शान्तिसे सुना था क्योंकि वे सबके सब मंत्रो शास्त्रों में पारंगत थे तथा विनय भारसे दबे ( विनम्र ) हुए थे। उनकी अपनी मति भो शास्त्रानुकूल मार्ग पर चलती थी अतएव श्री एक हजार आठ जिनेन्द्रदेव के चरण कमलोंकी पूजा करके उन्होंने शत्रु सैन्यरूपी समुद्रको पार करनेका दृढ़ निश्चय किया था ॥ १११ ॥
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पार्थिवलक्षणत्वात् ।
बहूनि तस्मिन्नुपलक्षितानि ॥ १०८ ॥ द्विषट्सहस्रा मददन्तिगर्वा ।
चारों वर्गसमन्वित सरल शब्द - अर्थ - रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें राजसंक्षोभ नाम षोडश सर्गं समाप्त । ३. [ नाथं ] ।
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२. म बुद्धिस्त्वहं दब्जा: ।
षोडशः
सर्गः
[ ३०८]
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