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सप्तदशः
ये निष्कृपा न्यायपथावपेता विनाश्य देशान्स्वजनं विलुम्प्य । तेषां गदाभिः प्रविचूर्ण्य देहान् विशोषयिष्याम इहाजिभूमौ ॥ २३ ॥ ये स्वामिनं नः परिभूय हृष्टाः प्रत्यागता लोभनिविष्टचेष्टाः । तानद्य हत्वा समरे दुराशांश्च' काकगृध्रानभितर्पयामः ॥ २४ ॥ एवं भटाश्चित्रमुदाहरन्तस्तुरङ्गमातङ्गरथाधिरूढाः समुद्यतास्त्रा' धरणीन्द्रगेहान्निश्चक्रतुर्भूपतिना सहैव ॥ २५ ॥ कश्चिद्भट योदुमभिवजन्तं नरेन्द्रवेषोद्धतचारुलोलम् । समीक्षमाणाः पुरवासिनस्ते जजल्परित्यं स्वमनोगतानि ॥ २६ ॥
ADATA-मन्ना
नामक हस्ति-रत्नका अपहरण करनेके लिए उद्यत हैं, आज समर-स्थलीमें बलपूर्वक उनके उत्तम वाहनोंको ही नहीं ले लिया जायगा अपितु तिरस्कृत करके उन निर्लज्जोंको यहाँसे खदेड़ दिया जायगा ।। २२ ॥
जो अत्यन्त दयाहीन तथा निर्दय हैं, नीतिमार्गसे योजनों दूर हैं, हमारे देशके ग्रामों, आकरों आदिका जिन्होंने विनाश किया है तथा हमारे देश बन्धुओंका निधूण वध किया है, आज उन दुष्टोंकी पापमय देहोंको गदाओंकी मारसे चूर-चूर करके समरस्थली रूपी आंगमें सुखा देंगे ॥ २३ ॥
जिन अर्थलोलुपोंकी प्रवृत्तियोंका लोभ ही नियन्त्रण करता है, फलतः हमारे नीति-निपुण महाराजका तिरस्कार करके जो नरकीट प्रसन्न हुए थे आज समरक्षेत्रमें उन सब दुरात्माओंकी ऐहिक लीला समाप्त करके उनके शरीरोंको मांसलोलुप काकगोध-आदि पक्षियोंको तर्पण कर देंगे ॥ २४ ॥
रणरंगमें मस्त योद्धा लोग पूर्वोक्त प्रकारसे अपने उत्साहको प्रकट करते हुए घोड़ों, हाथियों तथा रथोंपर सवार होकर महाराज देवसेनके साथ ही भूपतिके प्रसाद (राजभवन ) से निकले थे। उन सबके हथियार प्रहारके लिए सुसज्जित ही नहीं थे। अपितु वे उन्हें निकालकर हाथमें लिए जा रहे थे ।। २५ ।।। वरांग का राजरूप
[३१४] शत्रुकी युद्धको खाज मिटानेके लिए ही समरयात्रा पर जानेवाले कश्चिद्भटको देखकर ललितपुरके नागरिकोंके मनमें 4 जो भाव उत्पन्न हुए थे विशेषकर राजाओंके उपयुक्त वेशभूषाके कारण बढ़े हुए उसके मनोहर रूपको देखकर, उन सबको उन्होंने । आगे कहे जानेवाले वाक्यों द्वारा प्रकट किया था ॥ २६ ॥ १. [°श्वकाक] | २. म समुद्य तास्त्रा। ३. [ निश्चक्रमुः ] ।
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