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बराङ्ग चरितम्
एवं जनानां बहुभिर्वचोभिः प्रशंस्यमानः स्तुतिमङ्गलेश्च । पुरो बहिभूपतिना सहैव जगाम कश्चिद्भट ऊर्जितश्रीः ॥ ३६ ॥ ज्वलत्किरीटाङ्गदचाहाराः समुच्छ्रितातिध्वजकेतुलक्ष्याः । नरेन्द्रसिहा बृहदुग्र रोषाः परस्परं ते ददृशुः ससैन्याः ॥ ३७ ॥ प्रभञ्जनाभ्याहतचञ्चलोमिरदानादो जलधिर्यथैव ।
तथैव रोषानिलवेगनुन्नः सेनार्णवः सोऽतिभृशं चकम्पे ॥ ३८ ॥ गजा जगर्जुस्तुरगा हिहेषुर्ज्यामन्दनादान् रथिनः प्रचक्रुः । पदातिसैन्यस्य च सिंहनादैराधना' तदिक्का धरणी बभूव ॥ ३९ ॥
शान्त करो, इसके पीछे सन्मान में आधे देशका राज्य प्राप्त करो, राजदुलारीके पति बनी तथा सबके पूज्य होते हुए अपनी यशपताकाको देशदेशान्तरोंमें फहरा दो' ।। ३५ ।।
वीरानराग
कश्चिद्भटको देखकर नागरिक लोग उक्त प्रकारसे अनेक वचन कहकर उसकी प्रशंसा ही नहीं करते थे अपितु स्तुति - के साथ-साथ उसके लिए मंगल कामना भी करते थे। इस प्रकार प्रशंसित होता हुआ वह महाराज देवसेन के साथ ही नगरके बाहर निकल गया था। उस समय उसका तेज तथा कान्ति दोनों हो अन्यन्त उज्ज्वल हो रहे थे ॥ ३६ ॥
समरस्थली के प्रांगण में इकट्ठे हुए दोनों पक्षोंके राजाओंके किरीट, अंगद तथा सुन्दर मणिमय हार चमचमा रहे थे, उनके वाहनों के ऊपर लहराती हुई ऊँची-ऊँची पताकाओं को देखकर ही यह पता लगता था कि 'कौन कहाँका राजा है'। उनमें से प्रत्येकको अपने शत्रुके ऊपर बहुत तीव्र क्रोध था जिसे शान्त करनेके लिए ही अपनी-अपनी सेनाओंको साथ लिये हुए वे एकदूसरेको देख रहे थे || ३७ ॥
रणरंगका प्रदर्शन
भयंकर वेगयुक्त आँधीसे चंचल होने पर जब समुद्र में ऊँची लहरें उठती हैं तथा वह मेघोंकी गर्जनासे भी भयावह रोर कर उठता है । ऐसे ही क्षुब्ध समुद्रके समान क्रोधरूपी आँधीसे बौखलाया हुआ वह सेनासमुद्र भी अकस्मात् बड़े वेगसे उफन पड़ा था ।। ३८ ।।
हाथी चिंघाड़ रहे थे, घोड़े जोरोंसे हिनहिना रहे थे, रथोंपर आरूढ़ योद्धाओंके धनुषोंकी ज्याका तीव्र शब्द हो रहा था, पैदल सैनिक भी सिंहके समान हृदयको हिला देनेवाला नाद कर रहे थे तथा ऐसा मालूम हो रहा था कि पृथ्वी की सब दिशाएँ रुद्र कर्णोद्वेजक रोरसे भरी हुई हैं ।। ४९ ।।
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सप्तदशः
सर्गः
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