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शङ्खाश्च भेर्यः पटहाश्च घण्टा वंशास्तथा मर्दलका हलाश्च । प्रावटपयोदा इव ते रवेण प्रपूरयन्तो गगनं विनेदुः ॥ ४० ॥ स्थानानि संपाद्य चतुविधानि विस्फार्य चारूणि धषि दोभिः । आकर्णपूर्णानवकृष्य पाणौ परस्परं ते विविधर्नशराः ॥४१॥ तैरीर्यमाणा निशिताः पृषत्का मनोजवा हेमनिबद्धपुङ्खाः । वक्षांस्यरीणां विभिदुः पथूनि कूटान्यथोल्का इव पर्वतानाम् ॥ ४२ ॥ अथेन्द्रसेनस्य नराधिपस्य सेनाऽप्रसह्याभिययौ सरोषा । उद्धार्य खड्गानशनिप्रकाशान्प्रत्युद्ययौ देवनरेन्द्रसेनाम् ॥४३॥
सप्तदशः सर्गः
एक ओर शंख फूके जाते थे तो दूसरी ओर भेरियाँ पोटो जातो थीं, कोई पटह बजाते थे तो दूसरे घंटाको ठोक रहे थे, अन्य लोग बाँसके भोंपू, मर्दल ( मृदंग-सा बाजा) काहल, आदि बाजोंको मस्तीसे पीट रहे थे। इन सब युद्धके बाजोंकी । सम्मिलित ध्वनिसे आकाश वैसा ही गूंज रहा था जैसा कि वर्षाकालीन मेघोंकी गर्जनासे भर जाता है ।। ४० ।।:
दोनों सेनाओंके युद्धस्थलीमें खड़े हो जानेके बाद सैनिकोंने चार प्रकारके स्थानोंको बनाया था । पहिले दोनों भुजाओंसे फैलाकर सुन्दर धनुषोंपर डोरियाँ चढ़ायो थीं इसके पश्चात् बाण चढ़ाकर हाथसे डोरोको कानतक खींचकर दोनों सेनाओंके वीर सैनिकोंने परस्परमें प्रहार करना आरम्भ कर दिया था। वाणोंके पंखे ( पिछले भाग ) सोनेके बने थे ॥ ४१ ॥
युद्धारम्भ वीर सैनिकोंके द्वारा बलपूर्वक फेंके गये ऐसे वाण मनको गतिके वेगसे छुटते थे तथा सामने खड़े शत्रुओंके विशाल तथा दृढ़ वक्षस्थलोंको उसी प्रकार भेद देते थे जैसे आकाशसे गिरती हई बिजली पर्वतोंके उन्नत तथा विस्तृत शिखरोंको खंडखंड कर देती है ॥ ४२ ॥
प्रत्याक्रमण मधुराधिपतिकी अत्यन्त कुपित सेनाने बड़ी दृढ़ता तथा धृष्टताके साथ एकाएक आगे बढ़कर ललितेश्वरकी सेना पर आक्रमण किया था, जिसे घेरा डालते हए देखकर ही महाराज देवसेनकी सेनाने मियानसे तलवारें निकाल कर शत्रु से अधिक वेग और दृढ़ताके साथ प्रत्याक्रमण किया था। ललितेश्वरके सैनिकोंके हाथोंसे चलाये गये खड्गोंकी ज्योति बिजलीके समान में [३१८) प्रकाशित हो रही थी ।। ४३ ।।
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१.[°सेना]।
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