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सप्तदशः
बराङ्ग चरितम्
सर्गः
सुनन्दया किं तव राजपच्या संक्लेशवैरास्पदभूतया ते। या काचिदत्रैव वणिग्जनानां सुतानुकूला च सुखेन लभ्यते ॥ ३१॥ कि श्रेष्ठिपुत्रस्य नृपात्मजा वै वेलोदधि चतुमयं प्रयासः । गजेन्द्रवृन्दैः परिमृद्यमानं समुद्धरेतिक वद सा सुनन्दा ॥ ३२ ॥ एवं ब्रवाणानपरे निषिध्य समूचरित्थं वचनैयथार्थः । वणिक्सुतो राजकुमार एष वपुः प्रकाशीकुरुते स्ववंशम् ॥ ३३ ॥ जयारिसेनां स्वभुजोरुवीर्य२ भद्राणि मंक्ष्वाप्नुहि भद्रमात्या । इत्थं शशंसुस्त्वपरे वांसि स्वाशीर्जयप्रीतिपुरःसराणि ॥ ३४ ॥ जित्वा रिपूनप्रतिमप्रभावो व्यपास्य राज्ञो हृदयस्य तापम् । लभस्व देशं स्वस्तां च पूजां यशःपताकामिति केचिदूचुः ॥ ३५ ॥
यमन्यमान्य
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. राजपुत्री सुनन्दा को पाकर ही तुम्हारा कौन-सा बड़ा हित हो जायगा, क्या तुम नहीं जानते हो कि वह तुम्हारे लिए कितने अपरिमित संक्लेश तथा अमिट वैरका कारण होगी? जो कोई भी सेठोंकी पुत्री तुम्हारे योग्य तथा उचित होगी वही तुम्हें बिना किसी परिश्रम या भयके सरलतासे ही प्राप्त हो जायगी ।। ३१ ।।
सार्थपतिके पुत्रका प्रभुताके वातावरण में राजपूत्रीसे सम्बन्ध ही कैसा? तुम्हारा यह ( युद्ध विजय) प्रयत्न तो हाथों-हाथों प्रबल उन्नत लहरोंसे आकीर्ण समद्रके उस पार जानेके समान है। जब समरभूमिमें तुम्हें मदोन्मत्त हाथियोंके झुण्ड रोदते हुए निकल जायेंगे उस समय क्या, वह सुनन्दा तुम्हें उस संकटसे बचा लेगी।। ३२।।
विवेकियोंकी बातें _ इन उद्गारोंको प्रकट करने में लीन मोहप्रवण व्यक्तियोंको कुछ समझदार सज्जन रोक देते थे तथा उनको समझानेके
लिए यथार्थ बातोंको कहते थे । 'जिसे आप लोग सार्थपतिका पूत्र समझे बैठे हैं वह वणिक् पुत्र नहीं है अपिनु राजकुमार ही है। । देखते नहीं हैं, उसका तेजोमय शरीर हो उसके राजवंशको प्रकट कर रहा है ।। ३३ ॥
अपने प्रचण्ड भुजदण्डोंके प्रबल पराक्रम द्वारा शत्रुओंकी सेनाको जीतो, शीघ्रसे शीघ्र ही राज्यप्राप्ति, आदि कल्याणोंको प्राप्त करो तथा हे आर्य ! सब प्रकारसे तुम्हारा शुभ हो। इस विधिसे नागरिक पहिले उसकी विजयकी शुभकामना करते हुए आशीर्वाद देते थे और उसका गुणानुवाद करते थे ।। ३४ ॥
तुम्हारे प्रताप और प्रभावकी सीमा नहीं है, शत्रओंका मानमर्दन करके ललितेश्वरके पराभवजन्य मानसिक तापको १. म वीर्यात् । २. [ भक्ष्वाप्नुहि ] । ३. [ खद्रमार्य ] ।
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