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बराज चरितम्
अनेकवेषो
बहुदेशभाषस्तटिद्वपुश्च 'ञ्चलघूर्णितास्त्रः ।
तेषां पुनर्वाजिरथद्विपानां पदातिसंघः पुरतः प्रतस्थे ॥ १८ ॥ चित्पुनर्भूपतिशासनस्था: केचित्स्वभावोत्तममानदृप्ताः ।
केचित्परेन्द्रः परिभूयमाना उत्तस्थिरे योद्धुमभीप्सवस्ते ॥ १९ ॥ देशार्थसंग्रामपुरकरांच ताम्बूलवस्त्रोत्तमभूषणानि ।
प्रदाय योsस्मान्सकलत्रपुत्रान् बभार सन्मान पुरस्सराणि ॥ २० ॥ तस्येश्वरस्याप्रतिशासनस्य समक्षतो मानमदोद्धतानाम् ।
शिरांस्य रीणामसिभिनिकृत्य निवेदयन्तो अनिरुणो भवामः ॥ २१ ॥ स्वजीवितं बन्धुजनं विहाय जिघृक्षवो ये प्रतिमल्लनागम् । प्रगृह्य तेषां वरवाहनानि निष्कासयामो निरपत्रपांस्तान् ॥ २२ ॥
इस हस्ति, अश्व तथा रथमय महासेनाके आगे-आगे पदाति ( पैदल ) सेना चल रही थी । अपने-अपने राष्ट्र आदिके द्योतक उनके वेश नाना प्रकारके थे, वे अनेक देशोंसे आये थे अतएव उनकी भाषाएँ भी बहुत थों तथा युद्ध के उत्साहमें वे अपने अपने शस्त्रोंको घुमाते थे, जो बिजली के समान जगमग तथा चंचल थे ॥ १८ ॥
युद्धके हेतु
पदाति सेना कुछ भट केवल महाराज देवसेनकी आज्ञाको पालन करनेके लिए ही लड़ना चाहते थे, दूसरे कुछ सैनिक स्वभावसे ही स्वाभिमानी थे फलतः ऐसे अवसरोंपर शान्त रह ही नहीं सकते थे, अन्य अधिकांश सैनिक ऐसे थे जिनको शत्रु राजाने कष्ट दिया था तथा अपमान किया था अतएव उसके विरुद्ध लड़ना उनका धर्म हो गया था ।। १९ ।।
विशाल भूभागों का अधिपतित्व देकर अथवा उत्तम नगरों, सम्पत्ति बहुल आकरों तथा सम्पन्न ग्रामोंका शासक नियुक्त करके, उत्तम वस्त्र, आभूषण, भोजन, पान-पत्ता आदिको सुलभ करके जिस राजाने हमें ही नहीं हमारी स्त्री तथा बच्चोंका उदासीनतासे नहीं अपितु सम्मानपूर्वक भरण-पोषण किया है ।। २० ।।
तथा राज्यका शासन अथवा शासनकी मान्यतामें कोई अन्य नृपति जिसकी समता नहीं कर सकता है, आजके युद्ध में उस ही धर्मराजके समक्ष अहंकार के नशेमें चूर फलतः उद्दण्ड शत्रुओं के शिरोंको घासके समान तलवारसे काटकर उनके चरणों में बलि कर देंगे । और इस प्रकार महाराजके महा ॠणसे ऊरण होनेका प्रयत्न करेंगे ॥ २१ ॥
वीरों के उद्गार
जो अधम शत्रु अपने सगे सम्बन्धियों की नहीं अपने परमप्रिय जीवनको भी बलि करके ललितेश्वरके 'अप्रतिमल्ल' १. [fe° । ] Jain Education International Yo
२. म निकृत्य । ३. [ निणा ] ।
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सप्तदक्षः
सर्गः
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