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चतुर्दशा
सरितम्
सर्गः
एकान्ततः संस्मरति स्वबन्धन् कदाचिदन्तर्गतवाहभावः । कदाचिदुन्मत्त इव ब्रवीति स्वस्थः कदाचित्परमार्थवृष्टया ॥ ९६ ॥ ललितपुरनिवासिभिर्वणिग्भिः सुखधनधर्मफलानि पृच्छ्यमानः । अकथयदखिलानि तानि तेभ्यो युवनृपतिः स जगत्प्रयोजनानि ॥ ९७ ॥ पुनरथ सकलान्कलान्गुणांश्च प्रतिगमयन्पुरधीवणिग्जनानाम् । जिनमतममलं प्रकाशयंश्च ललितपुरं ललितैः सहाध्युवास ॥ ९८॥ इतिधर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वराङ्गचरिताश्रिते
ललितपुरप्रवेशो नाम चतुर्दशः सर्गः ।
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जब कभी एकान्त मिलता था तो वह माता-पिता, पत्नी, आदि कुटुम्बियोंको याद करता था फलतः कभी-कभी उसके अन्तरंगको दाह भभक उठती थी। इतना ही नहीं कभी-कभो वियोगके उभारके असह्य हो जाने पर वह पागलके समान स्वयं ही बोलता था और सुनता था, तथा अन्य समय जब निश्चयनयको दृष्टि खुल जाती थी तो सर्वथा शान्त और उदासीन हो जाता था ।। ९६ ॥
ललितपुर निवासी सेठोंके द्वारा यह पूछे जाने पर कि 'सुख, धन तथा धर्मका क्या फल ( उपयोग ) है तथा यह किन कर्मोंके फल हैं ।' उस युवक राजाने गृहस्थाश्रममें रहनेवालों के सांसारिक किन-किन प्रयोजनोंमें सुखादि कितने उपयोगी हैं यह सब उन लोगोंको पूर्णरूपसे स्पष्ट करके समझाया था ।। ९७ ।।
इसके अतिरिक्त ललितपुर-निवासी समस्त वणिकोंको समस्त कलाओं तथा श्रेष्ठ गुणोंकी शिक्षा देता हुआ वह महा बद्धिमान ललितपुरके स्वभाव तथा शरीरसे ललितजनोंके साथ निवास करता था तथा निर्मल जिन-मतकी प्रभावना करता था ॥ ९८॥
चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द-अर्थ-रचनामय वरांगचरित नामक, धर्मकथामें
ललितपुर-प्रवेश नाम चतुर्दश सर्ग समाप्त ।
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