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वराङ्ग
ततो राजा पुनस्तासां वियोगहतचेतसाम् । हृदयानन्दजननी गिरमित्थमुवाच सः ॥ १३३ ॥ मा भूवं विक्लवाः सर्वा आसतां धर्मवाञ्छया। उपक्रान्तैरुपायैस्तैः कुमारं मृगयाम्यहम् ॥ १३४॥ परिपम्य मुनि राजा भक्तिप्रेमाचेतसा । प्रणम्यान्तःपुरैः सार्थ स्नुषाभिश्च पुरं ययौ ॥ १३५ ॥ अचान्यदा सुखासीनं राजानममितप्रभम्। चैत्यपूजाभिलाषिन्यश्चक्रुर्विज्ञापनं स्नुषाः ॥ १३६ ॥ ततो विज्ञापितो राजा कारयामास मासतः । शरत्कालाम्बुदाकारं जिनेन्द्रभवनं शुभम् ॥ ९३७॥ मेघचुम्बितकूटाग्रं स्फुरत्केतुविराजितम्। चलद्धण्टारवोन्मियं ज्वलत्काञ्चनपीठिकम् ॥ १३८॥
पञ्चदशः
चरितम्
सर्गः
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यह सब होनेपर भो राजाने देखा था कि उनके हृदयोंपर जा पतिवियोगसे ठेस लगी है वह निर्मूल नहीं हुई है अतएव उनके हृदयोंमें आशा और आनन्दका संचार करनेके लिए उसने फिरसे उनसे निम्न वाक्य कहे थे-'हे पुत्रियों ! तुस सब अब खेद खिन्न मत होओ ।। १३३ ।।
शान्त चित्तसे धर्मके आचरणमें मनको लोन करते हुए समयको बिताओ। इस बीच में, मैं भी सब दिशाओंमेंसे सब विधियोंसे फैलाये गये विविध उपायों द्वारा युवराज वरांगको ढूढ़ता हूँ' ।। १३४ ॥
दृढ़ता धर्मरुचि मुनिराज यमधरके धर्मोपदेशका शोकसे विह्वल बहुओंपर साक्षात् प्रभाव देखकर महाराज धर्मसेनका हृदय भक्तिके उभारसे द्रुतहो पिघल, उठा था। अतएव उन्होंने भक्तिभावसे ऋषिराजकी तीन प्रदक्षिणाएँ करके प्रणाम किया था। तथा अपनी पुत्रवधुओं और रानियों आदि अन्तःपुरके साथ राजधानीको लौट आये थे ।। १३५ ॥
जिन मन्दिर निर्माण एक दिन महाराज धर्मसेन निश्चिन्तसे होकर शान्तिसे बैठे हुए थे, उनका अनुपम तेज चारों ओर छिटक रहा था किन्तु उसी अन्तरालमें पुत्रवधुओंने समाचार भेजा था कि 'हम सब श्री एकहजार आठ देवाधिदेव तीर्थंकर प्रभु की पूजा करना चाहती हैं ।। १३६ ॥
बहुओंकी इस अभिलाषाका पता लगते ही महाराज धर्मसेनने एक अति विशाल जिन मन्दिर का निर्माण कराया था । जिसका उत्षेध और रंग शरद् ऋतु के मेघोंके समान था । विशेषता यही थी कि ऐसा विशाल जिन मन्दिव एक मासमें ही तैयार हो गया था ॥ १३७ ॥
उस जिनालयका सबसे ऊपरी शिखर बादलोंका चुम्बन करता था, उस पर फहराये गये विशाल तथा विचित्र केतु आकाशमें लहरा रहे थे, सतत हिलते हुए घंटोंके गम्भीर नादसे वातावरण गूजता रहता था तथा गर्भगृहमें निर्मित सोनेकी वेदी का आलोक सब दिशाओंमें जगमगा रहा था ।। १३८ ।।
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