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बराङ्ग चरितम्
राजापि युद्धाभिमुखः ' सबन्धुः प्रवीक्ष्यते शत्रुविमर्दनाय । सन्मानदानैकर साप्तवीर्याः पुंस्त्वाभिमानास्त्वरयाभ्युपेताः ॥ ७७ ॥ एवंविधा सर्वजनाधिगम्या महाविभूत्या नृपशासनेन । भेर्या नदन्त्या परिघोषणा हि बंभ्रम्यते वारणमस्तके सा ॥ ७८ ॥ कश्चिद्भटः कान्तवपुस्तदानीं वामा ग्रहस्तापित गण्डदेशः । बलं समीक्ष्य स्वपुरान्तकस्य दध्यौ स्वयं किं क्रियते मयेति ॥ ७९ ॥ * व्याधिते च व्यसनिन्यनाथे क्षुत्पीडिते शत्रुजनाभिभूते । द्वारे नृपाणां पितृभूमिभागे संतिष्ठते यः किल सोऽतिबन्धुः ॥ ८० ॥
लोगोंका उत्साह बढ़ाने तथा उन्हें अपने कर्त्तव्यका स्मरण कराने के लिए ही विशाल ललितपुर नामक राजधानीमें उसने एक महाघोषणा करवा दी थी ॥ ७६ ॥
हमारे महाराज देवसेन अपने कटुम्बियों तथा मित्रोंके साथ युद्धके लिए कटिबद्ध हैं । वे शत्रुके मानको मर्दन करनेके लिए अनुकूल अवसरकी प्रतीक्षामें रुके हुए हैं। जिन लोगोंको राज सम्मान प्राप्त करनेकी अभिलाषा है, अथवा जो अपने राज्य का गौरव बनाये रखने के लिए सम्पत्तिका मोह छोड़ सकते हैं तथा जिन्हें अपने पुरुष होने का स्वाभिमान है, वे सब शीघ्रता से महाराजकी सेवामें उपस्थित हों ।। ७७ ।।
युद्ध घोषणा
इस ढंगकी उदार घोषणा राजाकी आज्ञासे बड़े ठाट बाटके साथ सारे नगरमें की गयी थी। इसके साथ-साथ विशाल भेरी भी बजायी जाती थी । तथा हाथोके मस्तकपर आरूढ़ ( व्यक्तियोंने ) इस घोषणाको नगरके एक कोने से दूसरे कोने तक फैला दिया था ।। ७८ ॥
उसी समय कश्चिद्भट (युवराज वरांग) अपनी हथेली पर बायां गाल रखे बैठे हुए थे, उनके स्वस्थ सुन्दर शरीरसे कान्ति छिटक रहो थी । वे समूची उस सेनाको देख रहे थे जिसे उनके निवास भूत नगरको नाश करनेके लिए शत्रुने चारों ओर फैला रखा था। वह मन ही मन सोचते थे कि 'मेरे द्वारा इस समय क्या सहायता की जा सकती है ॥ ७९ ॥
वरांगमें उत्साहको बाढ़
प्राणान्तक रोगोंमें फँसे, किसी प्रकारकी अन्य विपत्ति में पड़े, अनाथ, भूखसे व्याकुल, शत्रुओंके द्वारा निर्दय रूपसे तिरस्कृत हुए, राजदरबार में अपराधी रूपसे बुलाये गये तथा पितरोंकी भूमि श्मशान पर जो व्यक्ति दूसरोंका हर प्रकारसे सहायता करता है वही सच्चा बन्धु है ॥ ८० ॥
१. म शुद्धाभिमुखः । २. [ प्रतीक्षते ]
३. [ हस्तापित ] |
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४. क यो व्याधिते, [ सम्याधिके ] ।
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षोडशः
सर्गः
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