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षोडशः सर्गः
कोस्यान्न' युक्तिनिरवद्यरूपा समाश्रयेयं श्वशुरस्य हेतोः। अज्ञातशस्त्रव्यवहारदक्षो भटोऽहमस्मीत्युदिते न दोषः॥८५॥ मपोपकारं मम कुर्वतस्तु कोात्मवासः प्रकटो ध्रुवं स्यात् । इत्यात्मचिन्तागतमानसः सन् शुश्राव घोषं स तु घोषणायाः ॥८६॥ तां मत्तमातङ्गशिरोऽधिरूढामाप्लुध्यमाणां पटहस्वनेन । संश्रुत्य कश्चिद्भट उन्नतश्रीः किं कि किमित्येतदपुच्छदाशु ॥७॥ ते पच्छयमाना वरवारणस्थाः स्वस्वामिसंदेशवशानुवत्ताः । यात्यद्य राजा समराङ्गणाय रिपून्निहन्तुं त्विति संजजल्पुः ॥ ८८॥ निशम्य तेषां वचनं पथश्रीः कश्चिद्भटः सोऽप्यनवार्यवीर्यः। सहायकृत्यं नृपतेश्चिकीर्षन् शूरः प्रकृत्या द्विगुणं जहर्ध ॥ ८९ ॥
ऐसी कौन-सी युक्ति हो सकती है जिसमें कोई दोष न आता हो तथा जिसका बहाना करके मैं ससुरको सेवा कर सकूँ। "मैं एक अज्ञात योद्धा हूँ तथापि यदि आप विश्वास करें तो समझिये कि मैं सब शस्त्रोंके चलानेमें अत्यन्त कुशल हूँ", यह कहने में कोई दोष भी नहीं है ।। ८५ ।।
जब मैं अद्भुत रूपसे राजाकी सेवा तथा उपकार करूंगा तो निश्चित है कि मेरी कीतिके द्वारा ही मेरे माता-पिता, निवास स्थान, अपने आप ही प्रकट ही जायेंगे।" इस प्रकार जब वह मन ही मन चिन्तामें मग्न था उसी समय उसने राजघोषणा की ध्वनिको सुना था ।। ८७ ।।
मदोन्मत्त हाथीके ऊपर बैठा हुआ व्यक्ति उसे कह रहा था तथा दीर्घ स्वरमें बजते हुए पटह आदि बाजे उसको और गम्भीर तथा दूर तक सुने जाने योग्य कर रहे थे । अत्यन्त शोभाययान कश्चिद्भटके कानमें जब उसको ध्वनि पड़ी तो उसने T'क्या, क्या' करके शीघ्र ही पूरो घोषणाके विषयमें जिज्ञासा की थी ॥ ८७ ॥
घोषणाको पुष्टि उत्तम हाथीपर सवार घोषणा करनेवालोंसे जब प्रश्न किया गया तो उन्होंने अपने स्वामीको आज्ञाके अनुसार ही वहीं से उत्तर दिथा था 'महाराज देवसेन अपने शत्रुओंका समूल नाश करनेके लिए आज ही समरभूमिको जा रहे हैं' ॥ ८८॥
धोषणाका स्वागत कश्चिद्भटका वीर्य और तेज ऐसा था जिसके सामने कोई टिक हो नहीं सकता था अपने आप ही वह इस ऊहापोहमें १.[का स्यान्नु]। २. [ समाश्रये यां]। ३. क तां पुष्यमाणां, [ °माधुष्यमाणां ] ।
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न्यायाचनाचारवान्याचELINSAR
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