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बराङ्ग
षोडशः
चरितम्
महाबलस्यास्य पुरः कुतः स्यात्स्थातु हि शक्तिललितेश्वरस्य । सहैव नागेन विमुच्य देशं पलायतेऽसाविति केचिदूचुः ॥ ४३ ॥ सुनीतिमार्गेण समाचरन्तो जयन्ति शत्रुघ्नहतोऽपि हीनाः । अनीतिमन्तो बलिनोऽपि गम्या नैकान्तमस्तीत्यपरे निराहः ॥ ४४ ।। यः शक्तिमांस्तं पुनरप्रमत्तस्तथाप्रमत्तं न च दीर्घसूत्रः । तो नीतिमांस्तं खलु दैवयुक्तो जेष्यत्यरीनित्यपरे समूचुः ॥ ४५ ॥ एवं ब्रुवाणास्तु परस्परस्य जेतुं प्रविष्टाः परदेशमाशु । प्रविष्टमात्रेण पुरं विमुच्य ननाश देशं सकलं क्षणेन ॥ ४६ ॥
सर्गः
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क्षुब्ध समुद्रके समान विशाल तथा उग्र सेनाके साथ आक्रकण करते हुए इस मथुराधिपके समक्ष जमकर आक्रमण रोकनेकी भी सामर्थ्य विचारे ललितपुरेशमें कहाँसे आवेगी ? परिणाम यही होना है कि वह मदोन्मत्त हाथोको लेकर अपना देश # छोड़ देगा और कहीं भी भाग जावेगा । ऐसा कुछ अन्य विचारक कहते थे ।। ४३ ।।
'जो राजा कोश, दण्ड, मन्त्र आदि शक्तियोंमें अपने शत्रुसे हीन होते हुए भी नीतिशास्त्रके अनुसार प्रत्येक विषयपर गम्भीर मंत्रणा करते हैं और तब उसे कार्यान्वित करते हैं, वे बुद्धिमान केवल नीतिबलसे ही अपने शत्रुको जीत लेते हैं । तथा । नीतिमार्गके प्रतिकूल आचरण करनेवाले महाबली भो अपने साधारण शत्रुओंके द्वारा जीते जाते हैं फलतः किसी एक बात को ही निश्चित नहीं कहा जा सकता है। ऐसा नीतिशास्त्रके पंडितोंका मत था ।। ४४ ।।
अन्य लोगोंका दृढ़ मत था कि 'जो सर्वशक्तिसम्पन्न है उसे भी वह जीत सकता है, जो एक क्षणके लिए भी प्रमाद नहीं करता है ऐसे अप्रमादी पर भी उसकी विजय होती है, जो किसी कार्य में लग जानेपर एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाने देता है। शीघ्रकारीको भी नीतिमानके आगे झुक जाना पड़ता है और जिसके पक्षमें दैव होता है उसके विरुद्ध नीतिमान भी शिर पीटता , रह जाता है ॥ ४५ ॥
इस प्रकार आपसमें वार्तालाप करते हए इन्द्रसेनके पक्षके राजा लोगोंने विजय यात्राके मार्गको कब समाप्त कर दिया था इसका उन्हें पता भी न लगा था। उन्होंने देखा कि वे शत्रु के देशमें जा पहुँचे थे शत्रु-सेनाने ज्योंही ललितपुर राज्यमें प्रवेश किया त्योंही उसने जो ग्राम आदि सामने पड़ा उसीको नष्ट भ्रष्ट कर डाला था इस प्रकार केवल राजधानी हो शत्रुके प्रहारसे अक्षत रह गयी थी।। ४६ ।।
रामसन्यासमानामनामनाममायरामान्य
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१. [शत्रून्न हि तेऽपि ] ।
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