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पञ्चदशः
चरितम्
पञ्चदशः सर्गः अथोत्तमपुरे तस्य वाजिनापहृतस्य यत् । वृत्तान्तं कथितं सर्वमिदमन्यन्निबोधत ॥१॥ राजानो राजपुत्राश्च मन्त्रिणो दण्डनायकाः। भोजका भृत्यवर्गाश्च ये राज्ञा सह निर्गताः ॥ २॥ युवराजाधिरूढं तं वाजिनं वायुरंहसम् । 'अनुगम्याप पश्यन्तो बभ्रमुस्ते बनान्तरे ॥३॥ अपरे संनिवृत्त्याशु तुरङ्गहृतनायकाः। 'आक्रोशन्तो विषण्णास्ते निवेदयितुमागताः ॥ ४ ॥ पितरं तस्य संदृश्य बालादित्यसमप्रभम्। ससंभ्रमा समाश्रित्य वचनं चेदमब्रुवन् ॥५॥ वाजिनावार्यवीर्येण दुविनीतेन पार्थिव । वायुवेगप्रतापेन युवराजोऽपहारितः॥६॥
सर्गः
पञ्चदश सगे कपटी मंत्री द्वारा दुःशिक्षित घोड़ेके द्वारा उत्तमपुरसे हरण किये गये राजकुमार पर जो जो बीती, उसका पूर्ण वृतान्त हम कह चुके हैं । इसके अतिरिक्त ( उत्तमपुर में उसके कुटुम्बी पत्नी आदिको क्या अवस्था हुई ) और जो हुआ उसे भी सुनिये तथा समझिये ॥१॥
उत्तमपुरमें बीती महाराज धर्मसेनके साथ-साथ जो, जो राजा लोग, शिष्ट राजपुत्र, समस्त मंत्री, सेनापति तथा अन्य सैनिक कर्मचारी, भुक्तियों (प्रान्तों) के शासक तथा अन्य सेवकों का समूह युवराजको खोजनेके लिए निकले थे ॥ २॥
इन्होंने उस घोड़ेका पीछा करना चाहा था जिसपर युवराज वरांग सवार थे। किन्तु उस घोड़ेका वेग वायुकी गतिके समान तीव्र था, अतएव पूरी शक्ति लगा कर दौड़ने पर भी वे उस घोड़ेको न देख सके, कि वह किधरको भाग रहा था, फलतः इधर उधर एक जंगलसे दूसरेमें टक्कर मारते फिरते थे ॥ ३ ॥
अन्य कुछ लोगोंने जब समझा कि उनके युवराजको दुष्ट घोड़ा न जाने कहाँ ले गया है तो उन्होंने घोड़े, उसे निकालने वाले, भेटमें भेजनेवाले तथा अपने भाग्य आदिके लिए अपशब्द कहना प्रारम्भ किया था तथा बड़े खेद खिन्न हो गये थे। वे | बहुत जल्दो लौट आये थे और अपने प्रयत्न की असफलताका समाचार राजाको देने आ पहुँचे थे ।। ४ ।।
प्रभातके सूर्यके समान क्रोध और पश्चातापसे रक्तवर्ण उसके पिताको देखकर उन लोगोंने बड़ी त्वरा और भयपूर्वक निम्न वचनोंको उनसे कहा था ॥ ५॥
हे महाराज ! वह घोड़ा इतना प्रबल और हठो था कि उसे वशमें रखना असंभव था, इस पर भी उसे विपरीत आच
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याच्याच
। १. [ अमुगम्य प्रपश्यन्ता]।
२. म आक्रोशन्ते ।
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