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चतुर्दशः
सर्गः
स्त्रीभिः समं सागरवृद्धपत्नी कृतार्थयात्रं स्वपति विवृक्षुः । कश्चिद्धटं ख्यातयशोवितानं पूर्व तमालोकितुमाजगाम ॥६६॥ तां श्रेष्ठिपत्नी निरवद्यभावां कश्चिद्भटो वीक्ष्य ससंभ्रमः सन् । प्रत्युत्थितो मातृसमासभीप्सन् 'सा चापि मेने स्वसुताधिकं तम् ।। ६७ ॥ ततः स्वभर्तारमुपेत्य साध्वी प्रहृष्टभावा विनयं नियुज्य । चिरप्रवासागतमादरेण पप्रच्छ किंचित्कुशलं प्रियस्य ।। ६८॥ स्वबन्धुमित्राणि च पुत्रदारान्सनागरान्स्थानविशेषयुक्तान् । समानवृत्तान्वयवृत्तशीलान्समीक्ष्य तान्कौशलमभ्यपृच्छत् ॥ ६९ ॥
सार्थ-स्वागत सार्थपति सागरवृद्धिकी श्रीमतीजो भो सफल यात्रासे लौटे अपने पतिका स्वागत करनेके लिए अन्य स्त्रियोंके साथ गयी थीं। इस समय तक कश्चिद्भट ( क्योंकि वरांगका नाम अज्ञात था) की यशोगाथा उस नगरमें भी सर्वविश्रुत हो चुकी थी, फलतः श्रीमती सागरवृद्धि भी अपनो सहेलियोंके साथ सबसे पहिले उसे देखने गयी थीं।। ६६ ।।
पवित्र स्नेह आदि भावोंसे परिपूर्ण सेठानोको देखकर ही कश्चिद्भट संकोचमें पड़ गया था । अतएव उसे अपनी माताके समान पूज्य मानते हुए वह उसका आदर करने के लिए त्वरासे उठ बैठा था। साध्वी सेठानीने भी उसे अपने पुत्रसे अधिक o माना था ।। ६७ ।। - इसके बाद उस पतिपरायणाने अत्यन्त प्रसन्न होते हुए अपने जीवितेशके पास पहुँचकर शालीनता, शिष्टाचार तथा विनयके अनुसार उसका स्वागत किया था । तथा दीर्घ काल पर्यन्त प्रवासमें रहनेके बाद लौटे हुए अपने प्राणप्रियसे उसको कुशलक्षेम तथा प्रिय बातें पूछी थीं ॥ ६८ ॥
पुनर्मिलन दृश्य सार्थपति सागरवृद्धि भी बड़े उत्साहके साथ अपने बन्धु-बान्धवों, मित्रों, पुत्रों तथा पनियोंसे मिलकर उनकी कुशल पूछते थे। इसी प्रकार वह अपने नगर-निवासियोंसे भेंट करके उनके पुत्र-कलत्र आदिको क्षेम-कुशल पूछता था। नगरमें विशेष पदोंपर नियुक्त लोगों तथा अपने समवयस्क, समान शील, समान कुलोन तथा आचरणवाले व्यक्तियोंके प्रति भी उसका ऐसा ही व्यवहार रहा था ।। ६९ ॥
१. कसा चाभिमेने। Jain Education Interational
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