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चतुर्दशः
बराङ्ग परितम्
शिक्षाबलेनात्मपराक्रमेण स तं प्रहारं प्रतिवार्य वीरः । प्रहारमेक प्रदवावमोघं येनाहतोऽसन्प्रजहौ स कालः ॥ ३३ ॥ कालस्य कालप्रतिमः पिताऽसौ लोके महाकाल इति प्रतीतः। हतं सुतं प्रेक्ष्य रुजा प्रदीप्तः समाप्तकालः स्वयमाययौ सः ॥ ३४॥ हत्वा सुतं मे क्व न गच्छसि त्वं यद्यस्ति शौयं तव तिष्ठ तिष्ठ । त्वा मन्तकप्राभूतिकेऽतियुक्तो भवेयमयैव हि मा वरिष्व ॥ ३५ ॥ वैवस्वते मे न च भक्तिरस्ति न चाप्यहं त्वद्वचनावजामि । त्वं भक्तिमान्योग्यतमश्च तस्मै त्वां प्रापयामीति जगाद राजा ॥ ३६॥ किमत्र चित्रैर्वचनैनिरर्थकर्योत्स्ये प्रतीक्षस्व हि मा चलस्त्वम् । इत्याश्रितो योद्धमना युवेन्द्रः सोऽप्यागतस्तीवनिबद्धवैरः ॥ ३७॥
इस प्रकार ललकारते हुए युवराजने ढालको सम्हालते हुए और खड्गको घुमाते हुए क्रोधके आवेशमें आकर एक लम्बी फलांग ली थीं ।। ३२॥
तथा अपनी शस्त्र-शिक्षा तथा पराक्रम के पुल्लिङ्ग पूत्र के वार को काटते हुए, इसी अन्तरालमें एक ऐसा सच्चा सटीक हाथ मारा था कि जिसके लगते ही पुलिन्दोंके युवराज कालके प्राण पखेरू उसका शरीर छोड़कर उड़ गये थे ।। ३३ ॥
कालका पिता पुलिन्दनाथ तो यमकी साक्षात् प्रतिमा था इसीलिए उसको लोग महाकाल नामसे जानते थे । जब उसने अपने प्रिय पुत्रको मरा देखा तो क्रोधकी ज्वाला उसके शरीरमें भभक उठी थी। काल (उसका पुत्र) क्या समाप्त हुआ था उसका काल (आयु) ही समाप्त हो गया था अतएव बलीके बकरे के समान वह स्वयं राजपुत्रके सामने उपस्थित हुआ था ॥३४॥
पुलिन्दराज से युद्ध 'मेरे प्राणप्यारे पुत्रको मारकर तुम कहाँ भागते हो, यदि वास्तवमें कुछ पराक्रम है तो ठहरो और मुझसे लड़ो। हे सुकुमार! तुम आज मेरे हाथसे यमराजके लिये अत्यन्त उपयुक्त उपायन (भेंट या वलि) हो सकोगे । ३५ ।।'
'उसके वचनोंको सुनकर युवराजने भी कहा था-मुझे यमके प्रति स्वतः कोई भक्ति नहीं है, और न मैं तुम्हारे कहने से ही यमलोक जा सकता हूँ। ऐसा मालूम होता है कि तुम्हें यमपर बड़ी भक्ति है तथा तुम सब प्रकार से योग्य भी हो अतएव मैं यमके लिये तुम्हें हो आज स्वर्गलोक भेजता हूँ॥ ३६ ॥
इसके अतिरिक्त भांति भांति की बेढंगी बातें कहने से क्या लाभ है। अब मैं लड़ता हो हूँ, मेरे प्रहारकी प्रतीक्षा करो, १.क समास्त°। २.[ स्वमन्तकप्राभूतके°]। ३. [ भवेदमा व....वारेष्ठ ]। ४. म वैवस्वता। ५.क तद्वचनाद ।
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