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वराङ्ग चरितम्
तान्येव कर्मभाण्डानि समादायात्र जन्तवः । सुखदुःखानि विक्रेतु प्रयान्ति गतिपत्तनम् ॥ ११२ ॥ इति बहुविधकर्मदोषजालं समुदयसंग्रहकारणं सबन्धम् । जननमरणरोगशोकमलं यतिपतिना कथितं यथार्थतत्त्वम् ॥ ११३॥ पुनरपि यतिराडधःप्रयातां दुरितवशेन समश्नुतां फलानि । कथयितुमुरुधीश्चकार बुद्धि तरतमदुःखयुतानि तानि राज्ञे ॥ ११४ ॥
चतुर्थः
सर्गः
इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वराङ्गचरिताश्रिते
पापफलप्रकथनो नाम चतुर्थः सर्गः।
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इस संसारमें आठों कर्मोरूपी पण्य या विक्रय वस्तुओंको लेकर यह जीव सुख दुःखको ही बेचने और खरीदनेके लिए ही नरक आदि गतिरूपी नगर और पत्तनोंमें घूमता फिरता है ।। ११२ ॥
उपसंहार इस प्रकारसे तपस्वियोंके मुकुटमणि महाराज वरदत्त केवलीने जन्म, मरण, रोग और शोकके मूल कारण अनेक प्रकारके कर्मों तथा उनसे उपजे दोषोंके स्वरूप, उनके संग्रह या बन्धके कारणों, फल देनेके समय या उदय कालको तथा अबाधा आदिको । समझाया था जो कि सत्य तत्त्वज्ञानका रहस्य था ।। ११३ ।।
तो भी केवलज्ञानरूपो विशाल बुद्धिके स्वामी मुनिराजने राजाके कल्याणकी भावनासे प्रेरित होकर ही पापोंके उदयके कारण ही अधोगतिको प्राप्त करनेवालों तथा वहाँपर कम-बढ़ दुःखरूपमें अपने कर्मोके फलोंको भरनेवालोंके विषयमें और भी कहनेके लिए निश्चय किया था ।। ११४ ।।
चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द-अर्थ-रचनामय वराङ्गचरित नामक धर्मकथामें
'पापफल प्रकथन' नाम चतुर्थ सर्ग समाप्त ।
TATUTELARRELIGIRIKA
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