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बराङ्ग
दशमः
चरितम्
क्रोधादयोऽभ्यन्तरशल्यदोषा बाह्याश्च योषिद्धनवाहनाद्याः। त्यक्ताश्च' निजितमोहसेना तेषां ध्रुवं मोक्षमुदाहरन्ति ॥१९॥ यथोदयादुत्थितबालसूर्यो दिने चर तस्मिन्परिवर्तते सः। तथैव संपूर्णतपोविधाना अखण्डवृत्ताः परमाश्रयन्ति ॥ २०॥ कषायशाखं स्थिरमोहमूलमज्ञानपुष्पं बहुदुःखपाकम् ।। प्रज्ञाबलाः कर्मतरुं प्रभज्य मुनिद्विपास्तत्र सुखं वसन्ति ॥ २१ ॥ मोहक्षयाज्ज्ञानवृतिक्षयाच्च दृष्टयावृतेः संक्षयत: क्रमेण । तथान्तरायक्षयतश्च सर्वान् कैवल्यमुत्पाद्म विदन्ति भावान् ॥ २२ ॥
सर्गः
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तथा कायक्लेश इन छह प्रकारके बाह्य तपों तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग तथा ध्यान इन छह प्रकारके अन्तरंग तपोंको सदा करते हैं बे निश्चयसे अक्षय मोक्षपदको पाते है ।। १८ ।।
क्रोध आदि अभ्यन्तर शल्योंको तथा स्त्री, धन, वाहन आदि बाह्य शल्योंके दोषोंको जिन्होंने 'मनसा वाचा कर्मणा' छोड़ दिया है तथा मोहरूपी महाशत्रुको कषायादि बहुल महासेनाको पूर्णरूपसे पराजित कर दिया है उनके लिये मोक्षप्राप्ति ध्रुव है ॥ १९ ॥
उदयाचल से उदित होकर तथा मध्याह्नको तप करके उसी दिनके भीतर ही फिर बदलकर जिस प्रकार सूर्य अपनी प्रारम्भिक प्रकृतिको प्राप्त होता है उसी प्रकार समस्त तपस्याके विविध विधानोंको पूर्ण करके भी सम्यक्चारित्रकी निर्दोषताके रक्षक महामुनि आत्माको परम स्वाभाविक अवस्थाको प्राप्त करते हैं ।। २० ॥
विवेकरूपी महाशक्तिसे सम्पन्न मुनिरूपी मदोन्मत्त गज अनादिकालसे बँधे ( सुस्थिर) मोहरूपी जड़ोंपर खड़े, कषायरूपी शाखायुक्त, अज्ञान कुज्ञानरूपी फूलोंसे पूर्ण तथा दुःखरूपी पके फलोसे लदे कर्मरूपी विषवृक्षको उखाड़ कर फेंक देते हैं तथा मोक्षमें सहज सुखमय जीवन बिताते हैं ।। २१ ।।
कर्म-क्षय क्रम मोहनीय कर्मके नष्ट होनेसे ज्ञानके रोधक ज्ञानावरणी कर्मका नाश होनेपर, दर्शनावरणीके सर्वथा लुप्त हो जानेके कारण तथा क्रमशः अन्तराय कर्मके गल जानेपर यह आत्मा केवलज्ञानको प्रकट करता है तब समस्त द्रव्योंको उनकी पर्यायोंके साथ जानता है ।। २२ ।।
१. क रिक्ताश्च ।
२.क दिनेन ।
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