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बराङ्ग
चरितम्
परीत्य सर्वे युगपन्निगृह्यतामितः कुतो मा चल दोनजोवित । क्व गच्छसोति प्रतिगृह्य निर्दया बबन्धुरुद्धांन्तकुलाग्रपाणयः ॥ ४८ ॥ लतां गले संपरिषज्य दुर्दमा मुहुस्तुदन्तो धनुरग्रकोटिभिः। अदण्डनाहं सुकुमारमीश्वरं विनिन्युरात्मावसथाय दस्यवः ॥४९॥ पुलीन्द्रपल्लों द्विपदन्तसंवृतां मृगास्थिमांसोरुकलेवराञ्चिताम् । वसान्त्रवल्लरविकोणमण्डपां प्रवेशयामासुरनिष्टगन्धिनीम् ॥ ५० ॥ दुरात्मभिाधजनैरभिद्रुतः सबन्धनो वेदनया विरूक्षितः । जुगुप्सनीये नयनाप्रिये गृहे स्मरन्न शेते स्वपुराकृता क्रियाम् ॥ ५१॥
त्रयोदशः सर्गः
जातिके वनवासियोंने देखा था। युवराजको देखते ही उन्होंने अपने-अपने डंडे , तलवारें, धनुषबाणोंको हाथों में सम्हाल लिया था और अंट संट बककर युवराजको धमकाते हुए उस पर चारों ओरसे आ टूटे थे ।। ४७ ।।
अकस्मात् ही उन सबने चारों तरफसे घेरकर कहा था 'पकड़ लो, अरे दीन जोवनको व्यतीत करनेवाले ? यहाँसे किधर भी मत हिल, कहाँ भागता है इसके उपरान्त उन निर्दयोंने पकड़कर हाथोंमें जोरसे पकड़े गये कुठारोंको घुमाते हुए उसको बाँध दिया था । ४८ ॥
उसके गलेको एक लताकी रस्सोमें फंसा लिया था। वे निर्दय उद्दण्ड नीच दस्यु धनुषके नुकीले भागसे बार-बार उसको कुरेदते थे, यद्यपि सुकुमार युवराज वरांग ऐसे थे कि उन्हें दण्ड देना सर्वथा अनुचित था। इस प्रकार कष्ट देते हुए वे उन्हें अपनी पुलिन्द बस्तीमें ले गये थे ।। ४९ ॥
वहाँ पहुँचते हो, वे उन्हें अपनी बस्तीके राजाकी झोपड़ी पर ले गये थे। इस झोपड़ेके चारों ओर हाथियोंके दाँतोंकी बाढ़ थी, हिरणों की हड्डियों, मांस और पूरीकी पूरी लाशोंसे वह पटी था, बैठनेके मण्डपमें भी चर्बी, आतें, नसें आदि सब तरफ फैले पड़े थे तथा उसमें ऐसी दुर्गन्ध आ रही थी जिसे क्षण भरके लिए दूरसे भी सूचना असम्भव था॥५०॥
दुराचारी निर्दय भीलोंसे नाना प्रकारके कष्ट पाता हुआ, बन्धनमें पड़ा तथा शारीरिक वेदनाके कारण अत्यन्त व्याकुल युवराज घोर घृणाको उत्पन्न करनेवाले तथा आँखोंमें शूल समान चुभते हुए उस झोपड़ेमें पहिले किये गये अपने भोग। विलासमय जीवनको सोचता हुआ किसी प्रकार पड़ा रहता था, सोना असम्भव था ॥ ५१॥
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