________________
RAL
त्रयोदशः सर्गः
- IIHSHAHIReaturaiyaमामा-मामा
कुमन्त्रिणा मन्त्रमुखेन वैरिणा समर्पितं प्राप्य तुरङ्गमाधमम् । इमामवस्थामनुभूय सांप्रतं क्व वा गमिष्यामि कृतान्त कथ्यताम् ॥ ५२ ॥ पुरा मया कि तु' कृतं ह्यजानता विपाकतिक्तं हि दुरीहितात्मना । अनेकदुःखार्णववीचिसंकटान्निवृत्तिरद्यापि न मेऽस्ति पापिनः ॥ ५३॥ वियोगचिन्तापरिखिन्नचेतसस्ततश्च शार्दूलभयाद्विनिच्युतः । जलाशयान्निर्गमितस्य मे पुन:3 इदं महत्कष्टतमं ततोऽभवत् ॥ ५४॥ अहो दुरन्ता दुरनुष्ठिताः क्रिया अवश्यभाव्यास्त्वविचार्यवीर्यकाः । अवन्ध्यरूपाश्च विपाकदुस्सहा इति प्रचिन्त्यात्मनि मौनमादधौ ॥ ५५ ॥ तमोगहे पूतिकचर्मसंवृते बहुप्रकारे क्रिमितीव्रदर्शके । संमार्जनादिप्रतिकर्मवजिते महीतले शीतलवायुबाधने ॥ ५६ ॥
मंत्री पर क्रोध तथा आर्तध्यान ऊपरमे हितेषी मंत्रीका रूप धारण करनेवाले नीच शत्रु, मंत्रीके निकालनेके बाद भेंट किये गये विपरीत गामी घोड़ेपर चढ़कर ही मैंने इन एकसे एक बुरी अवस्थाओंका अनुभव किया है। हे कृतान्त ! तुम्हों बताओ अब मैं कहाँ जाऊँ ।। ५२ ॥
फलको बिना जाने ही पापमय प्रवृत्तियोंमें लिप्त मेरे द्वारा पूर्व जन्ममें कौनसे अशुभ कर्म किये गये होंगे जिनका परिपाक होनेपर ये अत्यन्त कडुवे फल प्राप्त हो रहे हैं । इसीलिए मुझ पापो को आज भी संकटरूपी घातक तथा उन्नत लहरोंसे व्याप्त, इस दुःखरूपी समुद्रसे छुटकारा नहीं मिल रहा है ।। ५३ ।।
मेरा हृदय माता-पिता, कलत्र आदिके वियोगजन्य दुःखसे यों ही अत्यधिक खिन्न था, उसपर भी सिंहका भय आ पड़ा था, किन्तु उससे भी छुटकारा मिला था, तालाबमें नक्रके मुखमें पड़कर भी बच गया था फिर उसके भी बाद यह महाविपत्ति कहाँसे आ टूटी ।। ५४ ।।
कुत्सित तथा पापमय कर्मोंका आचरण कितना भयंकर और दुःखद है। कुकर्मोका अन्त सर्वदा बुरा ही होता है। भगीरथ प्रयत्न करके भी उसे टाला नहीं जा सकती है क्योंकि उसकी शक्ति ऐसी है जिसका कोई प्रतिरोध नहीं कर सकता है।
ऐसी भी संभावना नहीं की जा सकतो है कि पापकर्मोकी फल देनेको शक्ति वन्ध्या हो जायगी । तथा इनका फल भी क्या होता 1 हैं? अत्यन्त असह्य।' मन ही मन इस प्रकारसे सोचकर वह चप हो गया था ।। ५५ ॥
भीषण कारागार जिस भागमें वह बन्दी था वह घर केवल अन्धेरेसे हो बना-सा प्रतीत होता था, उसके प्रत्येक कोनेमें चमड़ा भरा था । १.[कि नु]। २. ( विनिश्च्युतः । ३.क पुनविदं, [ पुनस्त्विदं ]। ४. [ °दंशके ] |
IARRIAGEHLEAPRIASISATTATRIGINGRESS
[२२७)
Jain Education interational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org