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वरांग
चतुर्दशः
चरितम्
सर्गः
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क्रोधोखता मानमवावलिप्ता लोभाभिभूता वृढबद्धवैराः । सुबद्धकक्षाः गृहीतशस्त्रा:' परस्परं जघ्नुरुपेत्य शूराः ॥ १४ ॥ दण्डाभिघातैः क्षपणैः प्रहारैः 'सभिण्डमालैमुसलैस्त्रिशूलैः । कुन्तैश्च टबैगुरुभिर्गदाभिः सतोमरैः शक्त्यसिमुद्गरैस्तु ॥ १५ ॥ विदार्य वक्राणि विभिद्य कायान्वितुद्य नेत्राणि विकृत्य वाहून । शिरांसि विच्छिद्य परस्परस्य निपातयां भूमितले बभूवुः ॥ १६ ॥ 'शिरांसि निस्तीक्षणतमैर कुन्तैरमर्षमाणास्तु वणिक्पुलिन्दाः । अन्योन्यमर्माणि विचिच्छिदुस्ते प्राणाजहः केचन मच्छिताश्च ॥ १७ ॥ वक्षस्सु तेषां समरप्रियाणां स्रवन्महाशाणिततोयधाराः । रेजुभशं क्रोधबलेक्षणानां तटे गिरीणामिव गैरिकाम्भः ॥१८॥
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इतनी देरमें दोनों सेनाओंके वीर योद्धाओं का क्रोध बहुत बढ़ चुका था फलत; वे अत्यन्त रुद्र और उद्दण्ड हो उठे थे, प्रत्येक अपने स्वाभिमान और अहंकारमें चूर था, दोनों को सफलता से प्राप्त होनेवालो सम्पत्ति का लोभ था, अतएव स्वार्थोंका संघर्ष होनेके कारण एक दूसरेके प्राणोंके ग्राहक बन बैठे थे, सब युद्धके लिये पूरे रूपसे सजे थे तथा हाथोंमें दृढ़तामें शस्त्र लिये थे, आपाततः एक दूसरे पर घातक प्रहार कर रहे थे । १४ ।।
दारुण रण डण्डोंके प्रचण्ड प्रहारमें, क्षणपोंके तोव्र आक्षेप द्वारा, भिन्दपालों को मारसे, मूसलोंकी चोटोंसे, त्रिशूलोंको भेदकर । कुन्तों और टंकों की वर्षासे, भारी गदाओंको मारसे, तोमर ( शापल ) शक्ति ( सांग ), खड्ग, कृपाण और मुद्गरोंके अनवरत में प्रहारों से कोई किसी का मुख चीर देते थे, शरीरको फोड़ देते थे, आँखें नोच लेते थे, भुजाएँ काट देते थे तथा बल पूर्वक एक दूसरे का शिर काटकर पृथ्वीपर गिरा देते थे। १५-१६ ॥
सार्थपति तथा पुलिन्दपति को सेनाके भट क्रोध और वरसे पागल होकर तीक्ष्ण से तीक्ष्ण तलवारों और उससे भीषण भालोंसे एक दूसरे का शिर काटकर गिरा देते थे तथा परस्परमें मर्मस्थलों को निर्दयतापूर्वक छेद देते थे। इस प्रकारके प्रहारों से कितने ही योद्धा वीरगति को प्राप्त होते थे तथा अन्य कितने ही मूच्छित होकर धराशायो हो जाते थे ॥ १७ ।।
योद्धाओं की आँखों से क्रोध और शक्तिके भाव टपके पड़ते थे । युद्ध उन्हें परम प्रिय था अतएव वक्षस्थल पर प्रबल १. क°वस्थाः। २. [ सभिन्दपाल° ] । ३. [ शरासिभिस्तीक्ष्णतमैश्च कुन्त ] । ४. मतमै रकण्है ।
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