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बराङ्ग
द्वादशः सर्गः
चरितम्
ताम्बूलधूपाञ्जनभैषजेषु वस्त्राद्यलचारविलेपनेषु । मालासु शय्यासनवाहनेषु द्रष्टं नरं प्राणि शशाक राज्ञः ॥ २७॥ नवान्नवांस्तानपरिश्रमेण प्राप्तानदाराविषयोपभोगान् । अभ्यर्थमानानकृतैर्मनुष्यैः समश्नुवानस्य । ततः कदाचिद्भुगलीश्वरेण संप्रेषितौ तौ युवभूमिपाय । जात्या किशोरौ कमनीमरूपावावासभूमौ शुभलक्षणानाम् ॥ २९ ॥ शुभान्वयौ बालमृगेन्द्रतुल्यौ हयोत्तमौ भूमिपतिः समीक्ष्य । को नाम शक्तो विनिनेतुमेतावित्यभ्यवोचत्सहसा सभायाम् ॥ ३०॥ तद्वाक्यलब्धावसरः स मन्त्री उत्थाय सोऽन्तर्हदि जातहर्षः। मत्तोऽस्ति कश्चित्पुरुषो विनेता द्रक्ष्यामि साधं कतिचिहिनानि ॥ ३१ ॥
यह सब करके भी वह कुमार वरांगके कपड़ों, आभूषण, विलेप, पानपत्ती, धूप आदि सुगन्धित पदार्थों, माला आदि वर प्रसंग, शय्या, आसन तथा घोड़ा आदि वाहनकी व्यवस्थामें कोई दुर्बल स्थान ( छिद्र ) या व्यक्ति न पा सका था जिसके द्वारा वह उसके जीवनपर आक्रमण करता ॥ २७॥
उसका समय उन कृतघ्न नीच पुरुषोंसे मिलते जुलते वोतता था जो शारीरिक, मानसिक या अन्य किसी प्रकारका परिश्रम नहीं करते हैं। तथापि पुण्य-श्रमके फलस्वरूप प्राप्त होनेवाली विशाल भोग-उपभोगको सामग्री तथा इन्द्रियोंके अन्य विषयोंको प्रतिदिन नये-नये रूप और ढंगसे पानेकी अभिलाषा करते हैं ।। २८॥
षड्यन्त्र प्रारम्भ इस प्रकार बहुत समय वीत जानेपर एक दिन भृगलोके एकच्छत्र अधिपतिने युवा राजा वरांगके लिए दो श्रेष्ठ घोड़े भेजे थे। उन दोनोंकी जाति (मातृकुल, नस्ल) तथा अन्वय (पितृकुल) उन्नत और शुभ थे, उनकी अवस्था भी उस समय किशोर थी, दोनोंका रूप अत्यन्त आकर्षक था, घोड़ोंमें जितने भी शुभ लक्षण हो सकते हैं उन सबकी तो वे दोनों निवास भूमि ही थे ॥२९॥
तथा देखनेपर वे रूढ मृगराज ( नहीं) सिंह के उत्तम मृगके शावकों समान भोलेभाले लगते थे। जब राजाने इन दोनों किशोर घोड़ोंको देखा तो सहसा हो राजसभा में उसके मुखसे निकल पड़ा कि इन दोनों घोड़ोंको कौन व्यक्ति भलीभांति शिक्षा देकर निकाल सकता है ।। ३०॥
राजाके इस वाक्यने मंत्री को षड्यंत्र करनेका अवसर दिया फलतः आनन्दसे उसका हृदय विकसित हो उठा था
१.[ द्रष्टुं न रन्ध्राणि । २. क विनेतुमेता, [ शक्तो हि विनेतु.]। ३. [ साथ ] । Jain Education international de
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