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त्रयोदशः
चरितम्
विशुद्धवाक्कायमनस्समाहितः कृताञ्जलिभक्तिजलार्द्रमानसः । नुनाव सामान्यविशेषसत्पदैर्वचोभिरव्याकुलितार्थशोभनैः ॥९॥ गिरां पति सद्यशसां च संनिधिं धियामधीशं दहनं स्वकर्मणाम् । निसर्गशुद्धान्वयधर्मशिनं जिनं नमामीष्टफलप्रदायिनम् ॥१०॥ विनष्टकर्माष्टकबुद्धिगोचरं समस्तबोध्येष्टहितार्थदर्शनम् । सुदृष्टिचारित्रपथाधिनायकं नतोऽस्मि निर्वाणसुखैधितं जिनम् ॥ ११ ॥ व्यपेतसर्वेषणधीरसद्बत प्रशस्तशुक्लप्रविधूतदुर्नयम् । अवाप्तनिर्वाणसुखं निरामयं नतोऽस्मि तं विघ्नविनायकं जिनम् ॥ १२॥
सर्गः
उसने मन, वचन और कायको शुद्ध करके शुभ ध्यानमें लगा दिया था, भक्तिरूपी जलसे उसका हृदय द्रुत हो उठा था अतएव उसने वीतराग प्रभुके आदश के आगे हाथ जोड़ लिए थे तथा पंच परमेष्ठीके सम्मिलित तथा पृथक्-पृथक् स्तोत्रों को पढ़कर नमस्कार कर रहा था। उसके मुखसे निकलते शब्द तथा उनके अर्थ दोनोंमें व्याकुलताको छाया तक न थी अतएव वे ॥ बड़े मनोहर लगते थे ॥९॥
जिनभक्ति हो शरण मैं श्री एक हजार आठ जिनेन्द्रदेव को नमस्कार करता हूँ जिनको भक्ति आत्माको विशुद्ध करके, मनचाहे फलों को देती है । तथा जो जिनेन्द्रदेव दिव्यध्वनिके स्वामी हैं, सत्य और यशके उत्तम कोश हैं, पूर्ण ज्ञानके प्रभु हैं, अपने कर्मोरूपी ईंधन के लिए जलती ज्वाला हैं तथा 'वस्तु स्वभावमय' होने के कारण जिसकी अनादि परम्परा परम शुद्ध है, ऐसे धर्म को दिखाने वाले हैं ॥ १० ॥
___ आठो कर्मों के भलीभांति नष्ट हो जानेसे उत्पन्न जिनके पूर्णज्ञानमें संसारके सबही जानने योग्य पदार्थ, विशेषकर । इष्ट और हितकारीपदार्थ साक्षात् झलकते हैं । जो सम्यक्दर्शन, ज्ञान तथा चारित्रमय रत्नत्रयके सुपंथके चलाने वाले हैं तथा अन्तमें निर्वाणरूपी अनन्त सुखको प्राप्त करके शोभित हो रहे हैं ऐसे जिनेन्द्र प्रभु को नमस्कार करता हूँ। ११ ।।
धन आदि समस्त ऐषणाओं ( अभिलाषाओं ) तथा मिथ्यात्वमय व्रतों की असारता को जिन्होंने प्रकट कर दिया है, परम पवित्र शुल्क-ध्यान के द्वारा जिन्होंने दुनियाँके कुनयरूपी काले बादलों को उड़ा दिया है, समस्त विघ्नको जीत लिया है, सब प्रकार के रोगोंसे परे हैं तथा निर्वाण महासुखके स्वामी हैं ऐसे जिनेन्द्र प्रभुके चरणों में प्रणाम करता हूँ॥ १२ ॥
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