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बराङ्ग चरितम्
एकादशः सर्गः
शुभे मुहूर्ते करणे तिथौ च सौम्यग्रहेषूपचयस्थितेषु । सिंहासने श्रीमति राजपुत्रं निवेशयां पूर्वमुखं बभूवः ॥ ६१ ॥ आनन्दितप्रीतिमुखे हताशाः' पुरप्रवेशं सकलं ननाद (?) । वंशा मुदङ्गाः पणवाः स्वरैस्स्वैरापूरयां सर्वदिशां बभूवः ॥ ६२॥ अष्टादशश्रेणिगणप्रधाना
बहुप्रकारैर्मणिरत्नमिश्रः। गन्धोदकैश्चन्दनवारिभिश्च पादाभिषेकं प्रथम प्रचक्रः ॥ ६३ ॥ सामन्तभूमीश्वरभोजमुख्या आमात्यसांवत्सरमन्त्रिणश्च । ते रत्नकुम्भैर्वरवारिपूर्णमूर्धाभिषेकं मुदिताः प्रचक्रुः ॥ ६४ ॥ स्वयं नरेन्द्रो युबराजपट्ट पुरस्कृतश्रीयशसे बबन्ध । नपाज्ञयाष्टौ वरचामराणि संचिक्षिपूस्तान्यभितस्तरुण्यः॥६५॥
राज्याभिषेक जिस शुभ तिथि, करण और मुहुर्तमें रवि, शशि आदि नवग्रह सौम्य अवस्थाको प्राप्त करके अपने-अपने उच्च स्थानों में में पहुँच गये थे उसी कल्याणप्रद मुहुर्त में राजाने कुमार वरांगको अत्यन्त शोभायमान महाय सिंहासन पर पूर्व दिशाकी ओर मुख करके बैठाया था ।। ६१ ॥
उस आनन्द और प्रीतिके अवसर पर नगर के प्रत्येक प्रवेश द्वारपर, बांसुरी, मृदंग, पटह आदि बाजे जोर-जोर से बजाये जा रहे थे, उनकी ध्वनि आकाशको चीरती हई दुरतक चली गयी थी और उनके स्वरसे सब दिशाएं गज उठी थीं॥६२।।
सबसे पहिले शिल्पी, व्यवसायी आदि अठारह श्रेणियों के मुखियोंने वरांगके चरणों का अभिषेक सुगन्धित उत्तम जलसे किया था। उस जलमें चन्दन घुला हुआ था तथा विविध प्रकारके मणि और रत्न भो छोड़ दिये थे ।। ६३ ॥
इसके उपरान्त सामन्त राजाओं, सम्बन्धी श्रेष्ठ भूपतियों, भुक्तियोंके अधिपतियों, आमात्यों, मन्त्रियों सांवत्सरों ! ( ज्योतिषी, पूरोहित आदि) ने आनन्द के साथ रत्नोंके कलशोंको उठाकर कूमारका मस्तकाभिषेक किया था। उनके रत्नकुम्भों में भी पवित्र तीर्थोदक भरा हआ था ।। ६४ ।।
अन्तमें महाराज धर्मसेनने अपने आप उठकर कुमार को युवराज पदका द्योतक पदक ( मुकुट तथा दुपट्टा) बांधा था जो कि लक्ष्मी और यशको बढ़ाता है। तथा महराज को आज्ञासे आठ युवती चमरधारिणियोंने कुमार के ऊपर सब तरफ से चमर ढोरना प्रारम्भ कर दिये थे । ६५ ।।
या रहसन का अजसे अाठर युवती का श्योराणन पुमार तशा इश्व
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१.क हताशा। Jain Education International
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