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बराङ्ग
दशमः सगः
चरितम्
यथैव ताड्यङ घ्रिपवीजमोक्ष एरण्डबीजप्रविसर्जनं वा। वह्नः शिखा चोर्ध्वमतीनि तानि तथैव चात्मोर्ध्वगतिस्वभावः ॥ ३२ ॥ असंगतात्पूर्वनियोगतश्च बन्धप्रणाशाद्गमनस्वभावात् । विनष्टकर्माष्टकलब्धसौख्या लोकान्तमाश्रित्य वसन्ति सिद्धाः ॥ ३३ ॥ शब्दादयो ये सुखदुःखमूला नश्यन्ति यस्मान्नृपते शरीरात् । तदाकृतिस्तत्परिमाणमात्राच्छायावदाभाति च सर्वकालम् ॥ ३४ ॥ यथा मधूच्छिष्टकृतं तु छिद्रं चाश्रित्य मूषापतितं सुवर्णम् । समं तदद्भावयवानपैति तथैव पूर्वाकृतिरेव तत्र ॥ ३५॥
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एक समय में मुक्त होनेवाले मानवोंकी संख्या चार ही कही गयो है, मध्यम उत्कर्षयुक्त शरीरधारियों अथवा सामान्य देह युक्त जीवोंके विषय में यही प्रसिद्ध है कि एक समयमें अधिकसे अधिक आठ ही उनमेंसे सुगति ( मुक्ति) को प्राप्त करते हैं ।। ३१ ।।
मक्ति-उदाहरण __जिस प्रकार ताड़ी वृक्ष के बीज परिपाकके पूर्ण होते ही बन्धन मुक्त हो इधर-उधरको उचट जाते हैं, अथवा जैसे अरण्डके बीजोंके आवरणके फटते ही वे चिटक कर ऊपर चले जाते हैं, अथवा जलता आगकी ज्वालाओंकी जैसी ऊपरको गति होती हैं उसी प्रकार बन्धन मुक्त जोवका गमन भी ऊपरकी ओर होता है ।। ३२ ।।
अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहके छूट जानेसे, शुद्ध प्रकृति होनेके कारण, कर्मोंके निखिल बन्धनोंके नष्ट हो जानेके कारण तथा ऊर्ध्व-गमन स्वभाव होनेके कारण आठौं कौके समल क्षय होने पर उदित अतीन्द्रिय अनन्त सुखका स्वामी होकर सिद्धजीव लोकके ऊपर पहुँचकर सिद्धशिला (प्राग्भार ) पर ही ठहरता है ।। ३३ ।।
मक्त-आकार __ हे भूपते ! सुखों और दुःखोंके प्रधान हेतु शब्द, स्पर्श, गन्ध आदि शरीरमेंसे विलीन हो जाते हैं फलतः शरीरका पौद्गलिक ( स्थूल ) रूप नष्ट हो जाता है, फलतः उसी उत्षेध आदिके मापका सूक्ष्म आकार मात्र शेष रह जाता है, जो कि मुक्ति पानेके बाद सदा ही प्रतिविम्बके समान शोभित होता है ।। ३४ ॥
मधु मक्खियोंके छिद्रोंमें वमन किया गया मधु जिस प्रकार छिद्रका आकार धारण कर लेता है, अथवा साँचे में ढाला गया सोना जिस प्रकार उसके आकारको ग्रहण कर लेता है उसी प्रकार मक्त जीव भो अपनी पहिलेकी आकृतिको उसके आंगो
पांगके आकारके साथ केवल छाया रूपसे धारण करता है ।। ३५ ।। ११.[°ध्वंग तोनि]। २.क असंगताः । ३. क तु चिन्वं नाश्रित्य ।
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