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अष्टमः सर्गः
मत्तदिपस्कन्धगताः सुवेषाः सितातपत्रोच्छ्रितकान्तिकान्ताः । पत्तिद्विापाश्वैरनुगम्यमानाः प्रयान्ति केचिन्नवराः सभाग्याः ॥ ४९ ॥ नाथोऽयमस्माकमसौ क्षितोशो भुवनक्त्ययं ग्रामसहस्रमेकम् । संश्लाध्यमाना इति भृत्यमुख्यत्र जन्ति धीराः सुकृतैस्तु केचित् ॥ ५० ॥ कलत्रपुत्रप्रियबन्धुमित्रैः साधं सुखानीष्टतमानि हृष्टाः । रात्रौ दिवा चानुभवन्ति केचिद्धर्मप्रसादाः२ सुखिनः पुमांसः ॥ ५१ ॥ शय्यान्नपानाशनवित्तदानः सन्मानयन्तोऽथिजनान्प्रहृष्टाः। जीवन्ति केचित्सुखमक्षयार्था धर्मानभावेन मनुष्यवर्याः ॥५२॥ सौभाग्ययुक्ता खलु रूपसंपद्रूपत्वमारोग्यगुणैरुपेतम् ।
आरोग्यताभोगपरीतमुख्या भवन्ति पुंसां बहपुण्यभाजाम् ॥ ५३॥ कुछ पुण्यात्मा जीव उत्तम राजा होते हैं वे जब कहीं जाते हैं तो भाग्योदयके कारण वे मदोन्मत्त हाथोकी पीठपर सुन्दर वेशभूषाके साथ बैठते हैं। उनके ऊपर धवल छत्र लगाया जाता है जिसकी उन्नत कान्तिके कारण वे और अधिक सुन्दर प्रतीत होते हैं तथा उनके पीछे-पीछे पैदल, घड़सबार और हाथियोंपर सवार सेना चलती है ।। ४९ ॥
'यह हमारे भरण पोषण करनेवाले प्रभु हैं, ये साक्षात् सारो पृथ्वीके राजा हैं, इनको हजारों ग्रामोसे राजस्व प्राप्त होता है, इत्यादि चाटु बचन कहकर अपने प्रधान सेवकोंके द्वारा प्रशंसित होते हुये अनेक धीर वीर पुरुष चलते हैं । यह सब भी उनके पुण्योंके प्रतापसे ही सम्भव होता है ।। ५१ ॥
अन्य सुखी पुरुष पुण्य कर्मोके फलोन्मुख होनेके ही कारण अपनी पत्नी, बाल बच्चों, मित्रों, कुटुम्बियों तथा अन्य प्रियजनोंके साथ मनचाहे प्रियसे प्रिय सुखों को दिन रात भोगते हैं और दुःखोंके अनुभवसे मुक्त होकर दिन रात प्रफुल्ल रहते हैं ।। ५१ ।।
दूसरे नरपुंगव धर्मके प्रभावसे इतनी अधिक सम्पत्ति पाते हैं कि अत्यन्त प्रसन्नता और उल्लासके साथ याचकोंके झुडोंके झुडोंको भोजन, पान, अन्न, बिछौना, धन आदि देकर खूब संतुष्ट करते हैं तो भी उनकी सम्पत्ति घटती नहीं है और उनका जीवन सुख और सम्पन्नतासे हो बीतता है ।। ५२॥
जो पुरुष अत्यधिक पुण्यात्मा हैं उन्हें केवल सौन्दर्य ही नहीं प्राप्त होता अपितु वे सबको प्रिय होते हैं, उनके सौन्दर्यका सहचारी स्वास्थ्य गृण होता है तथा उनका स्वास्थ्य भी नानाप्रकारकी भोग-उपभोग सामग्रीसे घिरा रहता है ।। ५३ ।। १. क आधगम्य । २.[प्रसादात् ] ।
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