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स्वनाथकायानुविकाररूपाः स्वनाथभावप्रियचारुवाक्याः । स्वनाथदृष्टिक्षमचारवेषाः स्वनाथसच्छासनसक्तचित्ताः ॥ ५३॥ युसुन्दरीणाममितद्युतीनां मनोहरश्रोणिपयोधराणाम् । तासां वपुर्वेषविलासभावान् कथं पुमान्वर्णयितु हि शक्तः ॥ ५४॥ एकः समुद्रो भवनाधिपानां पल्योपमं व्यन्तरकेषु विद्धि । ज्योतिर्गणेष्वभ्यधिकं तदेव सौधर्मकल्पे' द्विसमुद्रमाहुः ॥ ५५ ॥ सप्तैव माहेन्द्रमहाविमाने ब्रह्मेन्द्रकल्पे दश वर्णयन्ति । ते लान्तवे चापि चतुर्दशैव समुद्रसंख्या यतिराडवोचत् ॥ ५६ ॥ शुक्रे पुनः षोडश ते समुद्रः कल्पेऽष्टमेऽष्टादश सागरास्ते । ततः परं विशतिरानते च द्वाविंशतिस्त्वारणसंज्ञकल्पे ॥ ५७ ॥
उनका रूप ऐसा होता है कि उसे देखकर उनके पतियोंके शरीरमें हो विकार होता है, वे अपने-अपने प्राणनाथोंके भावोंके अनुकूल ही प्रिय वचन बोलती हैं, उनका वेश और शृंगार ऐसा होता है जो कि उनके पतियोंकी आँखोंमें समा जाता है तथा उनका मन सदा ही अपने पतियोंको आज्ञाका पालन करनेके लिए उद्यत रहता है ।। ५३ ।।
देवियां अपरिमित सौन्दर्य और कान्तिको स्वामिनी स्वर्गीय अंगनाओंको शारीरिक रचना, वेशभूषा, प्रेमलीला, हाव-भाव । आदिका मनुष्य कैसे अविकलरूपसे वर्णन कर सकता है क्योंकि नितम्ब, स्तन आदि प्रत्येक अंगकी कान्तिको कोई सीमा नहीं है तथा प्रत्येक अंग ही मनोहर होता है ।। ५४ ।।
देवोंको स्थिति भवनवासी देवोंकी उत्कृष्ट आयुका प्रमाण एक सागर प्रमाण है। व्यन्तरोंको आयुका प्रमाण पल्यको उपमा देकर समझाया गया है। ज्योतिषी देवोंको आयुका प्रमाण कुछ अधिक एक पल्य हो है, प्रथम स्वर्ग सौधर्ममें देवोंकी उत्कृष्ट आयु दो सागर प्रमाण है, ऐशान कल्पमें भी आयुका यही प्रमाण है ।। ५५ ।।।
सानत्कुमार और माहेन्द्रकल्पमें सात सागर उत्कृष्ट आयु है, ब्रह्म तथा ब्रह्मोत्तर कल्पोंमें उत्कृष्ट आयुको दश सागर [१५७] गिनाया है, यतियोंके राजा केवली प्रभुने लांतव तथा कापिष्ठ स्वर्गों में अधिकसे अधिक चौदह सागर प्रमाण आयु कही है ॥५६||
शुक्र, महाशुक्र स्वर्गामें ऐसी ही ( उत्कृष्ट ) अवस्थाका प्रमाण सोलह सागर है, अष्टम कल्प शतार तथा सहस्रारमें १. म °कल्पादि।
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