________________
Pame-
नवमः सर्गः
SHAH
उत्पाटयेयुः स्वभुजेन मेरुं महीं कराग्रेण समुद्धरेयुः । आदित्यचन्द्रावपि पातयेयुर्महोदधि चापि विशोषयेयुः ॥ ४८॥ व्याप्याशु तिष्ठेयुरथो जगन्ति अदृश्यरूपाः क्षणवद्भवेयुः । ईयुनिमेषाद्वसुधातलान्तं ते कामरूपाश्च भवेयुरीशाः ॥ ४९ ॥ इन्द्राश्च सामानिकलोकपालास्तथा त्रयस्त्रिशदनीकिनश्च । प्रकीर्णकाः किल्विषिकात्मरक्षा अथाभियोग्याः परिषत्त्रयं च ॥ ५० ॥ सौधर्मकल्पप्रभृतिष्वमीषु दशप्रकारा नप देववर्गाः। ज्योतिर्गणा व्यन्तरदेववर्गा न च त्रयस्त्रिशकलोकपालाः ॥५१॥ सुराङ्गना वैक्रियचारुवेषाः सुविभ्रमाः सर्वकलाप्रगल्भाः। विशिष्टनानद्धिगुणोपपन्ना गुणैरनेकै रमयन्ति देवान् ॥ ५२ ॥
RespenPHPaire-Swamipreswwesesear
देव अपने भुजबलसे सुमेरु पर्वतको भी उखाड़ कर फेंक सकते हैं, सारा पृथ्वोको एक हाथसे उठा सकना भी उनके सामर्थ्यके बाहर नहीं है, एक झटकेमें वे सूर्य चन्द्रको पृथ्वोपर गिरा सकते हैं। वे अपनी शक्तिसे समुद्रको भी सुखाकर चौरस स्थल बना सकते हैं, यदि एक क्षणमें तीनों लोकोंको अपने आकारसे व्याप्त करके बैठ सकते हैं ।। ४८॥
तो दूसरे ही क्षणमें वे ऐसे अन्तर्धान ( विलीन ) हो सकते हैं कि उनके रूपका पता लगाना ही असम्भव हो जाता है। एक बार पलक मारने भरके समय में वे पृथ्वी के एकसे दूसरे छोरतक चल सकते हैं, वे सर्वशक्तिशालो संसारी अपने आकार इच्छानुसार बदल सकते हैं ।। ४९ ॥
देव-वर्ग प्रत्येक स्वर्गके देव साधारणतया इन्द्र (प्रधान) सामानिक ( इन्द्रकी बराबरीके देव ) लोकपाल ( दण्डनायक आदि) वायस्त्रिंश ( मंत्री, पुरोहित आदि ) अनीक ( सेनाके समान देव ) प्रकीर्णक (प्रजाके समान) किल्विषक (नीच देव ) आत्मरक्ष ( अंग रक्षक ) अभियोग्य ( सेवक स्थानीय जो सवारी आदिके काम आते हैं ) तथा परिषत् (सभासद ) ये दशों प्रकारके देव सौधर्म आदि सोलह कल्पोंमें पाये जाते हैं । सूर्यादि ज्योतिषी देवों तथा किन्नर आदि व्यन्तर देवोंमें त्रायस्त्रिश और लोकपालके सिवा आठ ही वर्गके देव होते हैं ।। ५०-५१ ॥
देवोंकी स्त्रियाँ अपनी विक्रिया ऋद्धिके द्वारा वेशभूषाको अत्यन्त ललित बनाती हैं, इनके हावभाव भी अतीव मनमोहक होते हैं, कोई ऐसी ललित कला नहीं है जिसमें वे दक्ष न हों, वे एकसे एक उत्तम ऋद्धियों और गुणोंकी खान होती हैं । इस प्रकार । अपनी बहुमुखी विविध विशेषताओके कारण वे देवोंके मनको हरण करती हैं।। ५२ ।।
For Private & Personal Use Only
[१५६]
www.jainelibrary.org
Jain Education International