________________
बराङ्ग चरितम्
वर्णोत्तरे पुण्यगुणाभिरम्ये लक्ष्मीमति व्याप्तयशादिगन्ते । यदुवंशे' लभते प्रसूति सन्तस्तदाहः सुकृतानुभावम् ॥ ४०॥ मन्नाथवत्सप्रियपुत्र केति प्रलाल्यमानो' नियतं पितृभ्याम् । यद्बालभावाद्युवतामुपैति निर्वाच्यरूपः सुकृतं तदूचुः ॥ ४१ ॥ यूना वरिष्ठस्तु समस्समेषु मान्यः प्रियस्तत्पितृबान्धवानाम् । भौविचित्रैरुपगढवेषश्चक्रीच्यते पुण्यविभूतिदृप्तः ॥ ४२ ॥ श्लक्ष्णानि वासांसि महाधनानि विचित्ररागाणि च संवसानि(?) । गन्धान्सुगन्धीकुसुमस्रजश्च संसेवमानो रमते स पुण्यः ॥४३॥
अष्टमः सर्गः
FoRECRUARGDELETERISPIRICERSEASTR
RETARREARRIAREAD
EAKIRT
भी उनका भला नहीं कर पाती है, बेचारोंका प्रियजनोंसे विरह होता है और अहितु अप्रियजनोंका चिर समागम होता है । यदि किसी तरह कुल अधिकार प्राप्त हो ही जाते हैं तो उन सबसे भी कोई लाभ नहीं होता है ।। ३९ ।।
समृद्धिशाली उन्नत वंशोंसे जो श्रेष्ठ पुरुष जन्म लेते हैं, उत्तम वर्ण (ब्राह्मण आदि ) को पाते हैं, पुण्यकर्म और सत्य आदि सुगुण जो उनके वंशकी शोभा बढ़ाते हैं तथा सम्पत्ति, ज्ञान, सुगति आदिसे उत्पन्न उनके कूलका यश जो दिशाओं और विदिशाओंमें फेल जाता है इस सबको आचार्योंने पुण्य कर्मोंका फल ही कहा है ॥ ४० ॥
पुण्य परिपाक मेरे स्वामी ? बेटा ? प्राण प्यारे पूत्र ? आदि प्रेम सम्बोधन कहकर जिसका लालन-पालन माता-पिताके द्वारा अत्यन्त यत्नपूर्वक किया जाता है, बिना किसी कष्ट या शोकसे ही जो शैशवसे यौवनमें प्रविष्ट होकर ऐसे सुन्दर और रूपवान हो जाते हैं कि उसका वर्णन शब्दों द्वारा करना अशक्य हो जाता है यह सब पुण्यका फल है ऐसा पूज्य आचार्योंने कहा है ।। ४१॥
___ जो व्यक्ति पुण्यरूपी सम्पत्तिसे सम्पन्न है वह युवकोंका अग्रणी होता है, अपने समकक्षोंमें समानता ही नहीं पाता, अपितु उन सबका मान्य भी होता है। अपने माता-पिता, बन्धु-बान्धव, मित्रों आदिको परमप्रिय होता है। उसके वेशभूषा ही उसकी समृद्धि और पूर्णताको प्रकट करते हैं तथा वह नानाप्रकारके भोगों और उपभोगोंके साथ यथेच्छ क्रीड़ा करता है ।। ४२॥
उसके सबही वस्त्र कोमल और चिकने (तैलाक्त नहीं) होते हैं, निवास स्थान विपुल सम्पत्ति व्यय करके बनाये जाते हैं तथा उसके रंग ही चित्र विचित्र नहीं होते हैं अपितु उनमें सदा ही अलौकिक रागकी गूंज उठती रहती है । ऐसे महलोंमें पड़े हुए पुण्यात्मा जीव सुगन्धित पदार्थों, फूल मालाओं आदिसे मौज लेते रहते हैं ।। ४३ ।।
AIRSन्य
१. [यदृद्धवंशे ।
२. म पत्रिकेति ।
४.क विभूतिदृष्टः। .
३. म प्रलाप्यमानो । For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International